अजीब हुस्न है उन सुर्ख़ सुर्ख़ गालों में
मय-ए-दो-अतिशा भर दी है दो पियालों में..
सुनें जो आप तो सोना हराम हो जाए
तमाम रात गुज़रती हैं जिन ख़यालों में..
उम्मीद-ओ-यास ने झगडे में डाल रक्खा है
न जीनेवालों में हम हैं न मरनेवालों में..
यहाँ ख़िज़ाँ का खटका न ख़ौफ़ गुलचीं का
बहार गुल में रहे या तुम्हारे गालों में..
नहीं है लुत्फ़ कि ख़ल्वत में ग़ैर शामिल हो
उठा दो शम्अ को, ये भी हैं जलनेवालों में..!!
----------------"जलील मानिकपुरी"