जान के जी में सदा जीने का ही अरमाँ रहा
दिल को भी देखा किये यह भी परेशाँ ही रहा
कब लिबासे-दुनयवी में छूपते हैं रौशन-ज़मीर
ख़ानाए-फ़ानूस में भी शोला उरियाँ ही रहा
आदमीयत और शै है, इल्म है कुछ और शै
कितना तोते को पढ़ाया पर वो हैवाँ ही रहा
मुद्दतों दिल और पैकाँ दोनों सीने में रहे
आख़िरश दिल बह गया ख़ूँ होके, पैकाँ ही रहा
दीनो-ईमाँ ढूँढ़ता है 'ज़ौक़' क्या इस वक़्त में
अब न कुछ दीं ही रहा बाक़ी न ईमाँ ही रहा
----------------ज़ौक़