मासूमियत और हमाक़त में पल भर का फ़ासला है
मेरी बस्ती में पिछली बरसात के बाद
इक ऐसी अ’साब्शिकन ख़ुशबू फ़ैली है
जिसके असर से
मेरे क़बीले के सारे ज़ीरक अफ़राद
अपनी-अपनी आँखों की झिल्ली मटियाली कर बैठे हैं
सादालौह तो पहले ही
सरकंडों और चमेली के झाड़ों के पास
बेसुध पाए जाते थे
दहन के अन्दर घुलते ही
नीम के पत्तों का यूँ बर्ग-ए-गुलाब हो जाना तो मज़बूरी थी
हैरत तो इस बात पे है के आक के पौधों की माजूदगी के बावस्फ़
वारिस-ए-तसनीम-ओ कौसर
ऐसी लुआब-आलूद मिठास को आब-ए-हयात समझ बैठे हैं।
मासूमियत और हमाक़त में पल-भर का फ़ासला है !
-------------------परवीन शाकिर