मैं क्यों उसको फ़ोन करूँ !
उसके भी तो इल्म में होगा
कल शब
मौसम की पहली बारिश थी ।
---------------परवीन शाकिर
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Wednesday, June 1, 2011
तू नहीं तो ज़िंदगी में और क्या रह जाएगा
तू नहीं तो ज़िंदगी में और क्या रह जाएगा,
दूर तक तन्हाइयों का सिलसिला रह जाएगा।
दर्द की सारी तहें और सारे गुज़रे हादसे,
सब धुआँ हो जाएँगे एक वाक़िया रह जाएगा।
युं भी होगा वो मुझे दिल से भुला देगा मगर,
ये भी होगा ख़ुद से उसी में एक ख़ला रह जाएगा।
दायरे इंकार के इकरार की सरग़ोशियाँ,
ये अगर टूटे कभी तो फ़ासला रह जाएगा।
---------------------इफ्तिखार इमाम सिद्दीकी
दूर तक तन्हाइयों का सिलसिला रह जाएगा।
दर्द की सारी तहें और सारे गुज़रे हादसे,
सब धुआँ हो जाएँगे एक वाक़िया रह जाएगा।
युं भी होगा वो मुझे दिल से भुला देगा मगर,
ये भी होगा ख़ुद से उसी में एक ख़ला रह जाएगा।
दायरे इंकार के इकरार की सरग़ोशियाँ,
ये अगर टूटे कभी तो फ़ासला रह जाएगा।
---------------------इफ्तिखार इमाम सिद्दीकी
कोई ये कैसे बता ये के वो तन्हा क्यों हैं
कोई ये कैसे बता ये के वो तन्हा क्यों हैं
वो जो अपना था वो ही और किसी का क्यों हैं
यही दुनिया है तो फिर ऐसी ये दुनिया क्यों हैं
यही होता हैं तो आखिर यही होता क्यों हैं
एक ज़रा हाथ बढ़ा, दे तो पकड़ लें दामन
उसके सीने में समा जाये हमारी धड़कन
इतनी क़ुर्बत हैं तो फिर फ़ासला इतना क्यों हैं
दिल-ए-बरबाद से निकला नहीं अब तक कोई
एक लुटे घर पे दिया करता हैं दस्तक कोई
आस जो टूट गयी फिर से बंधाता क्यों हैं
तुम मसर्रत का कहो या इसे ग़म का रिश्ता
कहते हैं प्यार का रिश्ता हैं जनम का रिश्ता
हैं जनम का जो ये रिश्ता तो बदलता क्यों हैं
-----------------कैफ़ी आज़मी
वो जो अपना था वो ही और किसी का क्यों हैं
यही दुनिया है तो फिर ऐसी ये दुनिया क्यों हैं
यही होता हैं तो आखिर यही होता क्यों हैं
एक ज़रा हाथ बढ़ा, दे तो पकड़ लें दामन
उसके सीने में समा जाये हमारी धड़कन
इतनी क़ुर्बत हैं तो फिर फ़ासला इतना क्यों हैं
दिल-ए-बरबाद से निकला नहीं अब तक कोई
एक लुटे घर पे दिया करता हैं दस्तक कोई
आस जो टूट गयी फिर से बंधाता क्यों हैं
तुम मसर्रत का कहो या इसे ग़म का रिश्ता
कहते हैं प्यार का रिश्ता हैं जनम का रिश्ता
हैं जनम का जो ये रिश्ता तो बदलता क्यों हैं
-----------------कैफ़ी आज़मी
नुक्तः चीं है ग़म-ए-दिल उस को सुनाये न बने
नुक्तः चीं है ग़म-ए-दिल उस को सुनाये न बने
क्या बने बात जहाँ बात बनाए न बने
मैं बुलाता तो हूँ उस को, मगर ऐ जज़्बा-ए-दिल
उस पे बन जाए कुछ ऎसी कि बिन आये न बने
खेल समझा है, कहीं छोड़ न दे, भूल न जाए
काश यों भी हो, कि बिन मेरे सताए न बने
ग़ैर फिरता है लिए यों तेरे ख़त को कि अगर
कोई पूछे कि ये क्या है, तो छुपाये न बने
इस नज़ाकत का बुरा हो, वो भले हैं, तो क्या
हाथ आयें, तो उन्हें हाथ लगाए न बने
कह सके कौन, कि ये जल्वःगरी किस की है
पर्दः छोड़ा है वो उस ने, कि उठाये न बने
मौत की राह न देखूँ, कि बिन आये न रहे
तुम को चाहूँ कि न आओ, तो बुलाये न बने
बोझ वो सर से गिरा है, कि उठाये न बने
काम वो आन पड़ा है, कि बनाए न बने
इश्क़ पर ज़ोर नहीं, है ये वो आतिश "ग़ालिब"
कि लगाए न लगे, और बुझाए न बने
--------------------मिर्ज़ा ग़ालिब
क्या बने बात जहाँ बात बनाए न बने
मैं बुलाता तो हूँ उस को, मगर ऐ जज़्बा-ए-दिल
उस पे बन जाए कुछ ऎसी कि बिन आये न बने
खेल समझा है, कहीं छोड़ न दे, भूल न जाए
काश यों भी हो, कि बिन मेरे सताए न बने
ग़ैर फिरता है लिए यों तेरे ख़त को कि अगर
कोई पूछे कि ये क्या है, तो छुपाये न बने
इस नज़ाकत का बुरा हो, वो भले हैं, तो क्या
हाथ आयें, तो उन्हें हाथ लगाए न बने
कह सके कौन, कि ये जल्वःगरी किस की है
पर्दः छोड़ा है वो उस ने, कि उठाये न बने
मौत की राह न देखूँ, कि बिन आये न रहे
तुम को चाहूँ कि न आओ, तो बुलाये न बने
बोझ वो सर से गिरा है, कि उठाये न बने
काम वो आन पड़ा है, कि बनाए न बने
इश्क़ पर ज़ोर नहीं, है ये वो आतिश "ग़ालिब"
कि लगाए न लगे, और बुझाए न बने
--------------------मिर्ज़ा ग़ालिब
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