वो कभी धूप कभी छाँव लगे ।
मुझे क्या-क्या न मेरा गाँव लगे ।
किसी पीपल के तले जा बैठे
अब भी अपना जो कोई दाँव लगे ।
एक रोटी के त'अक्कुब में चला हूँ इतना
की मेरा पाँव किसी और ही का पाँव लगे ।
रोटि-रोज़ी की तलब जिसको कुचल देती है
उसकी ललकार भी एक सहमी हुई म्याँव लगे ।
जैसे देहात में लू लगती है चरवाहों को
बम्बई में यूँ ही तारों की हँसी छाँव लगे
------------------कैफ़ी आज़मी