मुझे इक बोझ की सूरत
उठाकर शाम कांधे पर
जब अपने घर पटक देती है लाकर
तेरे होठों की ज़िंदा मुस्कराहट
उठाती है मुझे
कहती है आओ
तुम्हारा बोझ पलकों पर उठा लूँ
सब अच्छा है
सभी ने घर में खाना खा लिया है
बघारी दाल, सोंधी रोटियाँ, आलू की सब्ज़ी, गर्म चाय
और उससे भी बहुत मीठा तेरा अंदाज़े दिलदारी
तेरी मानूस ग़मख़ारी
हथेली तेल बनकर जज्ब़ हो जाती है मेरे गर्म सर में
समा जाती हैं बालों में मसीहा उंगलियां तेरी
मुझे महसूस होता है
मेरे बिखरे हुए आज़ा दुबारा जुड़ गए हैं....
----------------------------- ज़फ़र गोरखपुरी
उठाकर शाम कांधे पर
जब अपने घर पटक देती है लाकर
तेरे होठों की ज़िंदा मुस्कराहट
उठाती है मुझे
कहती है आओ
तुम्हारा बोझ पलकों पर उठा लूँ
सब अच्छा है
सभी ने घर में खाना खा लिया है
बघारी दाल, सोंधी रोटियाँ, आलू की सब्ज़ी, गर्म चाय
और उससे भी बहुत मीठा तेरा अंदाज़े दिलदारी
तेरी मानूस ग़मख़ारी
हथेली तेल बनकर जज्ब़ हो जाती है मेरे गर्म सर में
समा जाती हैं बालों में मसीहा उंगलियां तेरी
मुझे महसूस होता है
मेरे बिखरे हुए आज़ा दुबारा जुड़ गए हैं....
----------------------------- ज़फ़र गोरखपुरी