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Tuesday, August 28, 2012

मसीहा उंगलियां तेरी

मुझे इक बोझ की सूरत
उठाकर शाम कांधे पर

जब अपने घर पटक देती है लाकर
तेरे होठों की ज़िंदा मुस्कराहट

उठाती है मुझे
कहती है आओ

तुम्हारा बोझ पलकों पर उठा लूँ
सब अच्छा है

सभी ने घर में खाना खा लिया है
बघारी दाल, सोंधी रोटियाँ, आलू की सब्ज़ी, गर्म चाय

और उससे भी बहुत मीठा तेरा अंदाज़े दिलदारी
तेरी मानूस ग़मख़ारी

हथेली तेल बनकर जज्ब़ हो जाती है मेरे गर्म सर में
समा जाती हैं बालों में मसीहा उंगलियां तेरी

मुझे महसूस होता है
मेरे बिखरे हुए आज़ा दुबारा जुड़ गए हैं....

----------------------------- ज़फ़र गोरखपुरी