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Saturday, August 2, 2008

चलो इक बार फिर से

चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों ।
न मैं तुम से कोई उम्मीद रखूँ दिलनवाज़ी की,
न तुम मेरी तरफ़ देखो ग़लत अन्दाज़ नज़रों से ।
न मेरे दिल की धड़कन लड़खड़ाए मेरी बातों से,
न ज़ाहिर हो तुम्हारी कशमकश का राज़ नज़रों से ॥
तुम्हें भी कोई उलझन रोकती है पेशक़दमी से,
मुझे भी लोग कहते हैं ये जलवे पराए हैं ।
मेरे हमराह भी रुसवाइयाँ हैं मेरे माज़ी की,
तुम्हारे साथ भी गुज़री हुई रातों के साए हैं ॥
तारुफ़ रोग हो जाए तो उसको भूलना बेहतर,
ताल्लुक बोझ बन जाए तो उसको तोड़ना अच्छा ।
वो अफ़साना जिसे अन्जाम तक लाना न हो मुमकिन,
उसे एक ख़ूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा ॥


----------साहिर लुधियानवी