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Saturday, August 2, 2008

ये ज़ुबाँ हमसे सी नहीं जाती

ये ज़ुबाँ हमसे सी नहीं जाती
ज़िन्दगी है कि जी नहीं जाती
इन सफ़ीलों में वो दरारे हैं
जिनमें बस कर नमी नहीं जाती
देखिए उस तरफ़ उजाला है
जिस तरफ़ रौशनी नहीं जाती
शाम कुछ पेड़ गिर गए वरना
बाम तक चाँदनी नहीं जाती
एक आदत —सी बन गई है तू
और आदत कभी नहीं जाती
मयकशो मय ज़रूर है लेकिन
इतनी कड़वी कि पी नहीं जाती
मुझको ईसा बना दिया तुमने
अब शिकायत भी की नहीं जाती

---------------साये में धूप / दुष्यन्त कुमार