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Thursday, December 30, 2010

सब्ज़ मद्धम रोशनी में

सब्ज़ मद्धम रोशनी में सुर्ख़ आँचल की धनक
सर्द कमरे में मचलती गर्म साँसों की महक

बाज़ूओं के सख्त हल्क़े में कोई नाज़ुक बदन
सिल्वटें मलबूस पर आँचल भी कुछ ढलका हुआ

गर्मी-ए-रुख़्सार से दहकी हुई ठंडी हवा
नर्म ज़ुल्फ़ों से मुलायम उँगलियों की छेड़ छाड़

सुर्ख़ होंठों पर शरारत के किसी लम्हें का अक्स
रेशमी बाहों में चूड़ी की कभी मद्धम धनक

शर्मगीं लहजों में धीरे से कभी चाहत की बात
दो दिलों की धड़कनों में गूँजती थी एक सदा

काँपते होंठों पे थी अल्लाह से सिर्फ़ एक दुआ
काश ये लम्हे ठहर जायें ठहर जायें ज़रा

------------------परवीन शाकिर

Thursday, December 16, 2010

आये हैं समझाने लोग

आये हैं समझाने लोग
हैं कितने दीवाने लोग

दैर-ओ-हरम में चैन जो मिलता
क्यों जाते मैख़ाने लोग

जान के सब कुछ, कुछ भी न जाने
हैं कितने अंजाने लोग

वक़्त पे काम नहीं आते हैं
ये जाने पहचाने लोग

अब जब मुझ को होश नहीं है
आये हैं समझाने लोग

---------------महेन्द्र सिंह बेदी 'सहर'

તારી ને મારી વાત

શબ્દોમાં ક્યાં સમાય છે તારી ને મારી વાત ?
અર્થોમાં ક્યાં ચણાય છે તારી ને મારી વાત

છલકાતી ચાંદનીમાં ઉતારી બધાં વસન,
ચંચળ બનીને ન્હાય છે તારી ને મારી વાત.

અવકાશમાં નિ:શ્વાસ બનીને ઘૂમી ઘૂમી-
એકાંતમાં પછડાય છે તારી ને મારી વાત.

આવી અતીતની આંગળી પકડીને આંખમાં
આંસુ મહીં ભીંજાય છે તારી ને મારી વાત.

રણ ખાલી-ખાલી આભ તળે એકલું નથી,
થઇ થઇ તરસ વિંઝાય છે તારી ને મારી વાત.

એની અવર-જવર છતાં ઉંબર નહીં ઘસાય ?
આવે ને પાછી જાય છે તારી ને મારી વાત.

રસ્તાની જેમ કાળ ખૂટે ક્યાં કે બેસીએ !
સપનાંનો ભાર થાય છે તારી ને મારી વાત.

--------------- રમેશ પારેખ

Sunday, November 14, 2010

સ્મિતનું સરવર

તમારી યાદોનું પોટલું ઉચકીને ચાલ્યા અમે
કદી હળવાફૂલ તો કદી ભારેખમ લાગ્યા તમે

પોટલીમાં બાંધી કેટલીયે સાંજ
પગલાની ભાતને ટહુકાની વાત,
હથેળીમાં ઉગેલું સ્પર્શનું વન
રોમરોમ ઉગેલી મહેકતી રાત,

થોડા શબ્દો થોડું મૌન ઉચકીને ચાલ્યા અમે
કદી ગમતીલું ગીત કદી કસુંબલ કેફ લાગ્યા તમે.

લીલીછમ લાગણી લાગે ભારે
મોરપિંછી રાતે ડંખ વાગે,
સ્મિતનું સરવર બાંધ્યું ગાંઠે
એકલતામાં મેળાનો અવસર લાગે,

થોડા રીસામણાં થોડા મનામણાં ઉચકીને ચાલ્યા અમે
કદી ચાતકની પ્યાસ કદી ઝરમર વરસાદ લાગ્યા તમે.

-----------------------વર્ષા તન્ના

Monday, October 4, 2010

નાનકડી નારનો મેળો

હાલો પરોઢિયે ખોલ્યાં છે પોપચાં,
તેજના ટશિયા ફૂટે રે લોલ :
ઘમ્મર વલોણે ગાજે ગોરસિયાં,
ખીલેથી વાછડાં છૂટે રે લોલ.

હાલોને સહિયર ! પાણીડાં જઈએ,
વીરડે વાતું કરશું રે લોલ :
વાટકે વાટકે ભરશું રે લોલ.

આખાબોલું તે અલી અલ્લડ જોબનિયું,
હૈયે ફાગણિયો ફોરે રે લોલ :
ઘૂમટો તાણીને હાલો ઉતાવળી,
ઘરડા બેઠા છે ગામચોરે રે લોલ…. હાલોને સહિયર….

નેણનાં નેવાંને ઊટકે આંજણિયાં,
હથેળી હેલને માંજે રે લોલ :
ચકચકતી ચૂની ને ચકચકતું બેડલું,
એકબીજાને ગાંજે રે લોલ….. હાલોને સહિયર…..

સાસુને માગ્યાં ઊનાં પાણી ને
સસરે દાતણ માગ્યું રે લોલ;
કાચી નીંદરને કાંઠેથી સપનું
મુઠ્ઠી વાળીને ભાગ્યું રે લોલ…. હાલોને સહિયર…..

હાલો પરોઢિયે ખોલ્યાં છે પોપચાં
તેજના ટશિયા ફૂટે રે લોલ :
મેળો જામ્યો છે અહીં નાનકડી નારનો,
આપણી વાતું નો ખૂટે રે લોલ….. હાલોને સહિયર…..

----------------------– વેણીભાઈ પુરોહિત

Tuesday, September 7, 2010

मार-गज़ीद

मासूमियत और हमाक़त में पल भर का फ़ासला है
मेरी बस्ती में पिछली बरसात के बाद
इक ऐसी अ’साब्शिकन ख़ुशबू फ़ैली है
जिसके असर से
मेरे क़बीले के सारे ज़ीरक अफ़राद
अपनी-अपनी आँखों की झिल्ली मटियाली कर बैठे हैं
सादालौह तो पहले ही
सरकंडों और चमेली के झाड़ों के पास
बेसुध पाए जाते थे
दहन के अन्दर घुलते ही
नीम के पत्तों का यूँ बर्ग-ए-गुलाब हो जाना तो मज़बूरी थी
हैरत तो इस बात पे है के आक के पौधों की माजूदगी के बावस्फ़
वारिस-ए-तसनीम-ओ कौसर
ऐसी लुआब-आलूद मिठास को आब-ए-हयात समझ बैठे हैं।
मासूमियत और हमाक़त में पल-भर का फ़ासला है !

-------------------परवीन शाकिर

हनीमून

सुर्ख़ अंगूर से छनी हुई ये सर्द हवा
जिसको क़तरा-क़तरा पी कर
मेरे तन की प्यासी शाख़ के सारे पीले फूल गुलाबी होने लगे हैं
सोच के पत्थर पे ऐसी हरियाली उग आई है
जैसे इनका और बारिश का बड़ा पुराना साथ रहा हो
हरियाली के सब्ज़ नशे में डूबी ख़ुश्बू
मेरी आँखें चूम रही है
ख़ुश्बू के बोसों से बोझल मेरी पलकें
ऐसे बंद हुई जाती हैं
जैसे सारी दुनिया इक गहरा नीला सय्याल है
जो पाताल से मुझको अपनी जानिब खींच रहा है
और मैं तन के पूरे सुख से
इस पाताल की पहनाई में
धीरे-धीरे डूब रही हूँ

----------------परवीन शाकिर

Wednesday, August 4, 2010

आ कि वाबस्ता हैं उस हुस्न की यादें तुझ से

आ कि वाबस्ता हैं उस हुस्न की यादें तुझ से
जिसने इस दिल को परीख़ाना बना रखा था
जिसकी उल्फ़त में भुला रखी थी दुनिया हमने
दहर को दहर का अफ़साना बना रखा था

आशना हैं तेरे क़दमों से वो राहें जिन पर
उसकी मदहोश जवानी ने इनायत की है
कारवाँ गुज़रे हैं जिनसे इसी र’अनाई के
जिसकी इन आँखों ने बेसूद इबादत की है

तुझ से खेली हैं वह महबूब हवाएँ जिनमें
उसके मलबूस की अफ़सुर्दा महक बाक़ी है
तुझ पे भी बरसा है उस बाम से मेहताब का नूर
जिस में बीती हुई रातों की कसक बाक़ी है

तू ने देखी है वह पेशानी वह रुख़सार वह होंठ
ज़िन्दगी जिन के तसव्वुर में लुटा दी हमने
तुझ पे उठी हैं वह खोई-खोई साहिर आँखें
तुझको मालूम है क्यों उम्र गँवा दी हमने

हम पे मुश्तरका हैं एहसान ग़मे-उल्फ़त के
इतने एहसान कि गिनवाऊं तो गिनवा न सकूँ
हमने इस इश्क़ में क्या खोया क्या सीखा है
जुज़ तेरे और को समझाऊँ तो समझा न सकूँ

आजिज़ी सीखी ग़रीबों की हिमायत सीखी
यास-ओ-हिर्मां के दुख-दर्द के म’आनी सीखे
ज़ेर द्स्तों के मसाएब को समझना सीखा
सर्द आहों के, रुख़े ज़र्द के म’आनी सीखे

जब कहीं बैठ के रोते हैं वो बेकस जिनके
अश्क आंखों में बिलकते हुए सो जाते हैं
नातवानों के निवालों पे झपटते हैं उक़ाब
बाज़ू तौले हुए मंडराते हुए आते हैं

जब कभी बिकता है बाज़ार में मज़दूर का गोश्त
शाहराहों पे ग़रीबों का लहू बहता है
आग-सी सीने में रह-रह के उबलती है न पूछ
अपने दिल पर मुझे क़ाबू ही नहीं रहता है

-------------------फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

अब कहाँ रस्म घर लुटाने की

अब कहाँ रस्म घर लुटाने की
बर्कतें थी शराबख़ाने की

कौन है जिससे गुफ़्तुगु कीजे
जान देने की दिल लगाने की

बात छेड़ी तो उठ गई महफ़िल
उनसे जो बात थी बताने की

साज़ उठाया तो थम गया ग़म-ए-दिल
रह गई आरज़ू सुनाने की

चाँद फिर आज भी नहीं निकला
कितनी हसरत थी उनके आने की

-----------------फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

Friday, July 23, 2010

निगाह का वार था

निगाह का वार था दिल पर फड़कने जान लगी
चली थी बरछी किसी पर किसी के आन लगी

किसी के दिल का सुनो हाल दिल लगाकर तुम
जो होवे दिल को तुम्हारे भी मेहरबान लगी

तू वह हलाले जबीं है की तारे बन बनकर
रहे हैं तेरी तरफ चश्म इक जहान लगी

उदारी हिर्स ने आकर जहान में सबकी ख़ाक
नहीं है किसको हवा ज़ेरे-आसमान लगी

किसी की काविशे-मिज़गां से आज सारी रात
नहीं पलक से पलक मेरी एक आन लगी

तबाह बहरे-जहां में थी अपनी कश्ती-ए-उम्र
सो टूट-फूट के बारे किनारे आन लगी

-----------------------ज़ौक़

तेरा बीमार न सँभला जो सँभाला लेकर

तेरा बीमार न सँभला जो सँभाला लेकर
चुपके ही बैठे रहे दम को मसीहा लेकर

शर्ते-हिम्मत नहीं मुज़रिम हो गिरफ्तारे-अज़ाब
तूने क्या छोड़ा अगर छोड़ेगा बदला लेकर

मुझसा मुश्ताक़े-जमाल एक न पाओगे कहीं
गर्चे ढूँढ़ोगे चिराग़े-रुखे-ज़ेबा लेकर

तेरे क़दमों में ही रह जायेंगे, जायेंगे कहाँ
दश्त में मेरे क़दम आबलाए-पा लेकर

वाँ से याँ आये थे ऐ 'ज़ौक़' तो क्या लाये थे
याँ से तो जायेंगे हम लाख तमन्ना लेकर

------------------------ज़ौक़

जान के जी में सदा जीने का ही अरमाँ रहा

जान के जी में सदा जीने का ही अरमाँ रहा
दिल को भी देखा किये यह भी परेशाँ ही रहा

कब लिबासे-दुनयवी में छूपते हैं रौशन-ज़मीर
ख़ानाए-फ़ानूस में भी शोला उरियाँ ही रहा

आदमीयत और शै है, इल्म है कुछ और शै
कितना तोते को पढ़ाया पर वो हैवाँ ही रहा

मुद्दतों दिल और पैकाँ दोनों सीने में रहे
आख़िरश दिल बह गया ख़ूँ होके, पैकाँ ही रहा

दीनो-ईमाँ ढूँढ़ता है 'ज़ौक़' क्या इस वक़्त में
अब न कुछ दीं ही रहा बाक़ी न ईमाँ ही रहा

----------------ज़ौक़

Sunday, July 4, 2010

भीगा दिन

भीगा दिन
पश्चिमी तटों में उतर चुका है,
बादल-ढकी रात आती है
धूल-भरी दीपक की लौ पर
मंद पग धर।

गीली राहें धीरे-धीरे सूनी होतीं
जिन पर बोझल पहियों के लंबे निशान है
माथे पर की सोच-भरी रेखाओं जैसे।

पानी-रँगी दिवालों पर
सूने राही की छाया पड़ती
पैरों के धीमे स्वर मर जाते हैं
अनजानी उदास दूरी में।

सील-भरी फुहार-डूबी चलती पुरवाई
बिछुड़न की रातों को ठंडी-ठंडी करती
खोये-खोये लुटे हुए खाली कमरे में
गूँज रहीं पिछले रंगीन मिलन की यादें
नींद-भरे आलिंगन में चूड़ी की खिसलन
मीठे अधरों की वे धीमी-धीमी बातें।

ओले-सी ठंडी बरसात अकेली जाती
दूर-दूर तक
भीगी रात घनी होती हैं
पथ की म्लान लालटेनों पर
पानी की बूँदें
लंबी लकीर बन चू चलती हैं
जिन के बोझल उजियाले के आस-पास
सिमट-सिमट कर
सूनापन है गहरा पड़ता,

दूर देश का आँसू-धुला उदास वह मुखड़ा
याद-भरा मन खो जाता है
चलने की दूरी तक आती हुई
थकी आहट में मिल कर।

-------------------गिरिजाकुमार माथुर

Saturday, July 3, 2010

बारिश

खिड़की से अचानक बारिश आई
एक तेज़ बौछार ने मुझे बीच नींद से जगाया
दरवाज़े खटखटाए ख़ाली बर्तनों को बजाया
उसके फुर्तील्रे क़दम पूरे घर में फैल गए
वह काँपते हुए घर की नींव में धँसना चाहती थी
पुरानी तस्वीरों टूटे हुए छातों और बक्सों के भीतर
पहुँचना चाहती थी तहाए हुए कपड़ों को
बिखराना चाहती थी वह मेरे बचपन में बरसना
चाहती थी मुझे तरबतर करना चाहती थी
स्कूल जानेवाले रास्ते पर
बारिश में एक एक कर चेहरे भीगते थे
जो हमउम्र थे पता नहीं कहाँ तितरबितर हो गए थे
उनके नाम किसी और बारिश में पुँछ गए थे
भीगती हुई एक स्त्री आई जिसका चेहरा
बारिश की तरह था जिसके केशों में बारिश
छिपी होती थी जो फ़िर एक नदी बनकर
चली जाती थी इसी बारिश में एक दिन
मैं दूर तक भीगता हुआ गया इसी में कहीं लापता
हुआ भूल गया जो कुछ याद रखना था
इसी बारिश में कहीं रास्ता नहीं दिखाई दिया
इसी में बूढ़ा हुआ जीवन समाप्त होता हुआ दिखा
एक रात मैं घर लौटा जब बारिश थी पिता
इंतज़ार करते थे माँ व्याकुल थी बहनें दूर से एक साथ
दौड़ी चली आई थीं बारिश में हम सिमटकर
पास-पास बैठ गए हमने पुरानी तस्वीरें देखीं
जिन पर कालिख लगी थी शीशे टूटे थे बारिश
बार बार उन चेहरों को बहाकर ले जाती थी
बारिश में हमारी जर्जरता अलग तरह की थी
पिता की बीमारी और माँ की झुर्रियाँ भी अनोखी थीं
हमने पुराने कमरों में झाँककर देखा दीवारें
साफ़ कीं जहाँ छत टपकती थी उसके नीचे बर्तन
रखे हमने धीमे धीमे बात की बारिश
हमारे हँसने और रोने को दबा देती थी
इतने घने बादलों के नीचे हम बार बार
प्रसन्न्ता के किसी किनारे तक जाकर लौट आते थे
बारिश की बूँदें आकर लालटेन का काँच
चिटकाती थीं माँ बीच बीच में उठकर देखती थी
कहीं हम भीग तो नहीं रहे बारिश में ।

----------------मंगलेश डबराल

बारिश

बारिश के लिए रात नहीं थी
वह तो बस बरस रही थी
हमारे लिए रात और बारिश थी ।

---------------प्रयाग शुक्ल

तुम्हारी यादें

नहीं भूलती है
जेठ की पहली बारिश के बाद
अकुलायी धरती से उठने वाली
वह सोंधी-सोंधी-सी गंध
नदियों, पहाड़ों और जंगलों को पार करते हुए
जाने कैसे चली आती है मुझ तक
और खिच्चे दानों में भरते दूध की तरह
मेरी आत्मा में भरती चली जाती है

कोयले की गर्द
और चिमनियों के विषाक्त धुएँ से भरे वायुमंडल में
जाने कैसे जीवित बच आती है वह गंध

भले ही हाथों में
धनरोपती के कीचड़ की जगह
ग्रीस और मोबिल लगते हैं
आँखें अब भी देखती हैं
लहलहाती फसलों का सपना

नहीं भूल पाता हूँ तुम्हें

ऊँची चिमनियों और गहरी खदानों की
सँप-सीढ़ियों वाली इस औद्योगिक नगरी में
हमें हलाल करने के लिए
माफिया और दलाल ही नहीं
क्रांति की बातों से बातों की क्रांति करने वाले
श्रमिक-नेताओं के भ्रमजाल भी हैं
और इनके बीच
मछेरे की हाँड़ी में कैद मछली-सा छटपटाता
गंवई-गांव का मेरा मन
बिछड़े तालाब की तरह लगातार तुम्हें याद करता रहता है

कभी भी तो नहीं भूल पाता हूँ तुम्हें
मक्के ही हरी बाल के खिच्चे दानों जैसी
तुम्हारी धवल दंतपंक्तियों से
झड़ने वाली उजली-उजली हँसी
अभी भी मेरी नींद में थिरकती है
आषाढ़ की बारिश में उपजे मोथे की जड़ों-सी मीठी
तुम्हारी यादें
गठिबंध सरीखी मेरी आत्मा से लिपटी हैं!

---------------------मदन कश्यप

Sunday, June 20, 2010

વરસાદ પછી

જ લ ભીં જે લી
જો બ ન વં તી
લથબથ ધરતી
અં ગ અં ગ થી
ટપકે છે કૈં
રૂપ મનોહર !
ને તડકાનો
ટુવાલ ધોળો
ફરી રહ્યો છે
ધીમે ધીમે;
યથા રાધિકા
જમુનાજલ માં
સ્નાન કરીને
પ્ર સ ન્ન તા થી
રૂપ ટપકતા
પારસ - દેહે
વસન ફેરવે
ધીરે ધીરે !

જોઈ રહ્યો છે
પરમ રૂપના
ઘૂંટ ભરંતો
શું મુજ શ્યામલ
નેનન માંહે
છુપાઈને એ
કૃષ્ણકનૈયો ?

-------લાભશંકર ઠાકર

चुपके-चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है

चुपके-चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है
हमको अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है

बा-हज़ाराँ इज़्तराब-ओ-सद हज़ाराँ इश्तियाक़
तुझसे वो पहले-पहल दिल का लगाना याद है

तुझसे मिलते ही वो बेबाक हो जाना मेरा
और तेरा दाँतों में वो उँगली दबाना याद है

खेंच लेना वोह मेरा परदे का कोना दफ़तन
और दुपट्टे से तेरा वो मुँह छुपाना याद है

जानकार सोता तुझे वो क़स्दे पा-बोसी मेरा
और तेरा ठुकरा के सर वो मुस्कराना याद है

तुझको जब तन्हा कभी पाना तो अज़ राहे-लिहाज़
हाले दिल बातों ही बातों में जताना याद है

जब सिवा मेरे तुम्हारा कोई दीवाना न था
सच कहो क्या तुमको भी वो कारख़ाना याद है

ग़ैर की नज़रों से बच कर सबकी मरज़ी के ख़िलाफ़
वो तेरा चोरी छिपे रातों को आना याद है

आ गया गर बस्ल की शब भी कहीं ज़िक्रे-फ़िराक़
वो तेरा रो-रो के मुझको भी रुलाना याद है

दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिए
वो तेरा कोठे पे नंगे पाँव आना याद है

देखना मुझको जो बरगशता तो सौ-सौ नाज़ से
जब मना लेना तो फिर ख़ुद रूठ जाना याद है

चोरी-चोरी हम से तुम आ कर मिले थे जिस जगह
मुद्दतें गुज़रीं पर अब तक वो ठिकाना याद है

बावजूदे-इद्दआ-ए-इत्तिक़ा ‘हसरत’ मुझे
आज तक अहद-ए-हवस का वो ज़माना याद है

-----------------------हसरत मोहानी

वे ख़ाम-ख़्वाह हथेली पे जान रखते हैं

वे ख़ाम-ख़्वाह हथेली पे जान रखते हैं
अजीब लोग हैं मुँह में ज़ुबान रखते हैं

ख़ुशी तलाश न कर मुफ़लिसों की बस्ती में
ये शय अभी तो यहाँ हुक़्मरान रखते हैं

यहँ की रीत अजब दोस्तो, रिवाज अजब
यहाँ ईमान फक़त बे-ईमान रखते हैं

चबा-चबा के चबेने-सा खा रहे देखो
वो अपनी जेब में हिन्दोस्तान रखते हैं

ग़मों ने दिल को सजाया, दुखों ने प्यार किया
ग़रीब हम हैं मगर क़द्रदान रखते हैं

वे जिनके पाँव के नीचे नहीं ज़मीन कोई
वे मुठ्ठियों में कई आसमान रखते हैं

सजा के जिस्म न बेचें यहाँ, कहाँ बेचें
ग़रीब लोग हैं, घर में दुकान रखते हैं।

------------------नूर मुहम्मद `नूर'

किया है प्यार जिसे हमने ज़िन्दगी की तरह

किया है प्यार जिसे हमने ज़िन्दगी की तरह
वो आशना भी मिला हमसे अजनबी की तरह

किसे ख़बर थी बढ़ेगी कुछ और तारीकी
छुपेगा वो किसी बदली में चाँदनी की तरह

बढ़ा के प्यास मेरी उस ने हाथ छोड़ दिया
वो कर रहा था मुरव्वत भी दिल्लगी की तरह

सितम तो ये है कि वो भी ना बन सका अपना
कूबूल हमने किये जिसके गम खुशी कि तरह

कभी न सोचा था हमने "क़तील" उस के लिये
करेगा हमपे सितम वो भी हर किसी की तरह

------------------क़तील शिफ़ाई

इतनी हसीन इतनी जवाँ रात, क्या करें

इतनी हसीन इतनी जवाँ रात, क्या करें
जागे हैं कुछ अजीब से जज़्बात, क्या करें ?

पेड़ों के बाजुओं में महकती है चांदनी
बेचैन हो रहे हैं ख़्यालात, क्या करें ?

साँसों में घुल रही है किसी साँस की महक
दामन को छू रहा है कोई हाथ, क्या करें ?

शायद तुम्हारे आने से यह भेद खुल सके
हैराँ हैं कि आज नई बात क्या करें ?


-----------------------साहिर लुधियानवी

मैं उन्हें छेड़ूँ और कुछ न कहें

मैं उन्हें छेड़ूँ और कुछ न कहें
चल निकलते जो मै पिये होते

क़हर हो या बला हो, जो कुछ हो
काश के तुम मेरे लिये होते

मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था
दिल भी या रब कई दिये होते

आ ही जाता वो राह पर 'ग़ालिब'
कोई दिन और भी जिये होते

---------------मिर्ज़ा ग़ालिब

Saturday, May 29, 2010

બા એકલાં જીવે

બા એકલાં જીવે….. બા સાવ એકલાં જીવે
એકલતાનાં વર્ષો એને ટીપે ટીપે પીવે
બાના ઘરમાં વેકેશન જ્યાં માળો બાંધી રહેતું
રસગુલ્લાની ચાસણી જેવું વ્હાલ નીતરતું વ્હેતું
દોડાદોડી, સંતાકૂકડી, સહુ પકડાઈ જાતાં
ભાઈ-ભગિની ભેળાં બેસી સુખનો હિંચકો ખાતાં
સુખડીમાં ઘી રેડી રેડી બા સહુને ખવડાવે
ઊડવાનું બળ આપી પાછી ઊડવાનું શીખડાવે
સુખનો સૂરજ છાનોમાનો જલતો ઘરના દીવે…
કાળ કુહાડી ફરી કપાયાં વેકેશનનાં ઝાડ
કોઈ હવે પંખી ના ફરકે ચણવા માટે લાડ
સૂનકાર ને સન્નાટાઓ ઘરમાં પહેરો ભરતાં
બાના જીવતરની છત પરથી શ્વેત પોપડા ખરતા
સુખડીનો પાયો દાઝેલો શેમાં એ ઘી રેડે
બાએ સહુના સપના તેડ્યા કોણ બાને તેડે
ફાટેલા સાળુડાં સાથે કૈંક નિ:સાસા સીવે
કમસે કમ કો ટપાલ આવે તાકે આંખો રોજ
નીચું ઘાલી જાય ટપાલી ખાલી થાતો હોજ
દાદાજીના ફોટા સામે ભીની આંખે પૂછે
ફ્રેમ થયેલા દાદા એનાં આંસુ ક્યાંથી લૂછે
શબરીજીને ફળી ગયા’તા બોર અને એ રામ
બાના આંસુ બોર બોર પણ ના ટપકે કો’ રામ
જીવતરથી ગભરાવી મૂકી મોતથી જે ના બીવે…
બા એકલાં જીવે….. બા સાવ એકલાં જીવે

----------------મુકેશ જોષી

તું પોતે મધ જેવી

એક તો તું પોતે મધ જેવી, એમાં તારું સ્મિત
જાણે મધમાં સાકર નાખી
મારી દષ્ટિ કેમ આટલી મીઠી, એ ના પૂછ
મેં તો તને નજરથી ચાખી

કડવાથી કડવા લીમડાની ડાળ પરે,
મધપૂડો બેસે એવી મારી હાલત
આખા જગમાં ખોબેખોબા ખૂબ
પતાસાં વહેંચું એવી ગળચટ્ટી આ બાબત

બંગાળી મીઠાઈ સમી તું સાંજ મને મોકલતી
ઉપર સ્પર્શનું અબરખ રાખી

તેં તો ખાલી છાંટો વાવ્યો ને
મારામાં શેરડીનું આ ખેતર ઊગી આવ્યું
મને જેમણે દાતરડાથી કાપ્યો,
એના ખોબામાંયે અમરત શું ઢોળાયું
જગમાંથી કડવાશ હટાવી રેલાવું મીઠાશ
મને જો મળી જાય તું આખી

------------મુકેશ જોષી

Tuesday, April 27, 2010

पेशानियों पे लिखे मुक़द्दर

पेशानियों पे लिखे मुक़द्दर नहीं मिले|
दस्तार कहाँ मिलेंगे जहाँ सर नहीं मिले|

आवारगी को डूबते सूरज से रब्त है,
मग़्रिब के बाद हम भी तो घर पर नहीं मिले|

कल आईनों का जश्न हुआ था तमाम रात,
अन्धे तमाशबीनों को पत्थर नहीं मिले|

मैं चाहता था ख़ुद से मुलाक़ात हो मगर,
आईने मेरे क़द के बराबर नहीं मिले|

परदेस जा रहे हो तो सब देखते चलो,
मुमकिन है वापस आओ तो ये घर नहीं मिले|

--------------------------राहत इन्दौरी

कितनी पी कैसे कटी रात

कितनी पी कैसे कटी रात मुझे होश नहीं
रात के साथ गई बात मुझे होश नहीं

मुझको ये भी नहीं मालूम कि जाना है कहाँ
थाम ले कोई मेरा हाथ मुझे होश नहीं

आँसुओं और शराबों में गुजारी है हयात
मैं ने कब देखी थी बरसात मुझे होश नहीं

जाने क्या टूटा है पैमाना कि दिल है मेरा
बिखरे-बिखरे हैं खयालात मुझे होश नहीं

-------------------राहत इन्दौरी

Monday, April 19, 2010

લગ્નોત્સુક કન્યાનું ગીત

આજ ખાલીખમ આંખમાં થયો શમણાંનો વરસાદ ને રાત્યું રેલમ છેલમ.
સાવ સુંવાળા હાથમાં ઊગ્યો મહેંદી કેરો સાદ ને ભાત્યું રેલમ છેલમ.

ચાકળાં માથે આભલાં ટાંકી,સોનમોતીએ ગુંથ્યું શ્રીફળ બારણે તોરણ.
મખમલી ઓછાડ માલીપા લીલદોરે બાવળિયાં કાઢી સોય ઝણણણ.
સૈ રાતેરા ઘરચોળાની જોષીએ કરી વાત ને ભાખ્યું રેલમ છેલમ.

ઘૂમટો લાંબો તાણ્યો,માથે મોડિયાની મરજાદ ને ઝાંઝર છમછમાછમ.
ઊંબરે ચઢાણ કપરા,પગે ઠેસ ને ઊડે નીંદરૂ,ડસે પડછાયાં ખમ્મ.
ધાગધિનાગીન ઢોલ વાગે ત્યાં ફળિયે પડે ફાળ ને આંખ્યું રેલમ છેલમ.

------------------------------------વિમલ અગ્રાવત

કાચ્ચી લીંબોળી જેવી છોકરી

લુંમઝૂમ લચકાતા લીલાછમ્મ લીમડાની કાચ્ચી લીંબોળી જેવી છોકરી.
મલકે તો મોગરો ને છલકે તો ચોમાસું, મહેંકે તો ફૂલોની ટોકરી.
કાચ્ચી લીંબોળી જેવી છોકરી.

આંખોમાં અણદીઠ્યા એવા અણસાર જેના અર્થ નથી એક્કેયે કોશમાં;
સોળસોળ શમણાંથી હાલ્લક ડોલ્લક યાને ઝરણાંઓ સર્પીલાં જોશમાં;
ઉડતા અંકાશ બને, કલરવની ભાત બને, વાંચતા બની જાય કંકોતરી.
કાચ્ચી લીંબોળી જેવી છોકરી.

છોકરીના હોઠ જાણે ઉડતા પતંગિયાની પાંખોનું ફરફરતું ગાન!
ગુલ્લાબી લ્હેરખીની નમણી સુગંધ પણ કાંકરી મારોન્ને તોફાન;
મેંતો શબ્દોથી શણગારી, પાંપણથી પંપાળી, હળવેથી હૈયામાં કોતરી.
કાચ્ચી લીંબોળી જેવી છોકરી.

---------------------------------------વિમલ અગ્રાવત

એક છોકરીને ક્યાંય હવે ગમતું નથી

એક છોકરીને ક્યાંય હવે ગમતું નથી.
મોભારે ક્યારનોય બોલે છે કાગડો ને ફળિયામાં કોઇ સંચરતું નથી.

ચકલી આવી ને બોલી ચીંચીં તો છોકરીએ આંખોને કેમ પછી મીંચી?
છોકરીનું હોવું તો મુઠ્ઠી કલરવ એને કોણ રોજ ભરતું તું સીંચી?
હવે છોકરીમાં કોઇ ફરફરતું નથી.
એક છોકરીને ક્યાંય હવે ગમતું નથી.

છોકરીનું સપનું તો તૂટેલી ઠીબ એમાં કોણ આવી ચાંચને ઝબોળે!
પાંખો વિનાની સાવ છોકરી આંખોમાં હવે પીંછાનાં દરિયાને ડહોળે.
હવે છોકરીને કેમ કોઇ ફળતું નથી?
એક છોકરીને ક્યાંય હવે ગમતું નથી.

------------------------------------વિમલ અગ્રાવત

સાજણ ધોધમાર વરસાદ પડે છે

તગતગતી તલવાર્યુ તડફડ આમતેમ વીંઝાય રે સાજણ ધોધમાર વરસાદ પડે છે.
ઢાલ ફગાવી,બખ્તર તોડી,લોક વીંધાવા જાય રે સાજણ ધોધમાર વરસાદ પડે છે.

કળીઓ ફરફર ફૂલ બની ને લહ લહ લહ લહેરાય રે સાજણ ધોધમાર વરસાદ પડે છે.
ઝરણાં હફડક નદી બનીને દરિયામાં ડોકાય રે સાજણ ધોધમાર વરસાદ પડે છે.

તદારે તદારે તાની દીર દીર તનનન છાંટે છાંટો ગાય રે સાજણ ધોધમાર વરસાદ પડે છે.
ઘેઘેતીટ તાગીતીટ તકતીર કીટ્તક પવન તાલમાં વાય રે સાજણ ધોધમાર વરસાદ પડે છે.

જળનાં ઘોડાપૂર અમારી આંખ્યુંમાં રુંધાય રે સાજણ ધોધમાર વરસાદ પડે છે.
સેંથો,ચુંદડી,કંગન,કાજળ,લથબથ પલળી જાય રે સાજણ ધોધમાર વરસાદ પડે છે.

હું દરિયે દરિયાં ઝંખું ને તું ટીંપે ટીંપે ન્હાય રે સાજણ ધોધમાર વરસાદ પડે છે.
હું પગથી માથાલગ ભીંજું તું કોરેકોરો હાય, અરે ભરચક ચોમાચા જાય ને મારું અંગ સકળ-
અકળાય રે નફ્ફટ! ધોધમાર વરસાદ પડે છે.

---------------------------------------------------વિમલ અગ્રાવત

હું તો આખી ને આખી ભીંજાણી

હતું મોસમનું પહેલું ઇ પાણી, સખીરી ! હું તો આખી ને આખી ભીંજાણી.
રે ! દરિયે કાંઇ નદીયું લુંટાણી સખીરી હું તો આખી ને આખી ભીંજાણી.

કોરાકટ આકાશે આવ્યું ઓચિંતું એક્ વાદળનું મખમલિયું પૂર.
છાંટે છાંટે ‘લિ મુંઇ છોલાતી જાઉં, પણ કેમ કરી જાવું રે દૂર?
મારી ચુંદડીને કોણ ગયું તાણી ? સખીરી હું તો આખી ને આખી ભીંજાણી.
હતું મોસમનું પહેલું ઇ પાણી, સખીરી હું તો આખી ને આખી ભીંજાણી.

ઝંખનાઓ ચોમાસા જેમ કાંઇ વરસે ને અંગ અંગ ઉમટે તોફાન;
કુંવારા સપનાઓ સળવળવા લાગે ને ભુલાતું સઘળુંયે ભાન;
હું તો ભીનપના ભારથી મુંજાણી, સખીરી હું તો આખી ને આખી ભીંજાણી.
હતું મોસમનું પહેલું ઇ પાણી, સખીરી હું તો આખી ને આખી ભીંજાણી.

-----------------------------------વિમલ અગ્રાવત

પૂનમરાત-પ્રોષિતભર્તૃકાનું ગીત

ગામને પાદર ઝૂલતી પૂનમરાત ને મારા ફળિયે બેઠું ઘોર ઘટાદાર ઘોર અંધારું.
ઉંબરા નામે પ્હાડ ને ભીંસોભીંસ ભીંસાવે એકલતા ચોપાસ ને માથે આભ નોધારું.

ખાબડખુબડ પડછાયાના ગોખલે બળે દીવડી નાની,રેબઝેબા થૈ હુંય મુંજાણી;
મોભનાં આખા વાંસ હડૂડે,ધડધડાધડ નળિયાં ઉડે,વરસે સાજણ તરસ્યું પાણી;
ભણકારાંથી ઝબકી જાગી જાય પારેવાં,હાંફતાં ઘૂં ઘૂં,ફફડે પાંપણ,કેમ હું વારું?
ગામને પાદર…

તળિયાંઝાટક આંખ ને સોણાં દૂર દેશાવર દૂર દરોગા,દૂર દેશાવર દૂર ઠેબાણાં;
ભમ્મરિયે પાતાળ ધરોબી તોય લીલુછમ્મ ઝાડ બની ગૈ નકટી તારી યાદ,ઓ રાણા !
રેશમી રજાઇ ઢોલિયે ઢાળી,મોરલાં દોરી,આજ આંખેથી ટપકે ટપાક કાંઇ ચોધારું.
ગામને પાદર…

--------------------------------------વિમલ અગ્રાવત

સાજણ રહે છે સાવ કોરા

આયખામાં આવી છે આષાઢી સાંજ અને ઝરમરિયાં વરસે છે ફોરાં.
સખીરી, મારા સાજણ રહે છે સાવ કોરા !

સાજણ કરતા તો સારું બાવળનું ઝાડ, જેને છાંટો અડતા જ પાન ફૂંટે;
સાજણ સંતાય મૂઓ છત્રીમાં, આખ્ખું આકાશ અરે મારા પર તૂટે;
પલળી પલળી ને હું તો ગળચટ્ટી થાવ પછી સાજણ લાગે છે સાવ ખોરા.
સખીરી, મારા સાજણ રહે છે સાવ કોરા.

ચૈતર વૈશાખ તો સમજ્યા પણ આષાઢી અવસરને કેમ કરું પાર?
સાજણ છે મારો સૈ વેકુરનો વીરડો ને મારી તરસ ધોધમાર;
વરસાદી વાયરાઓ ચાખી ચાખી ને હવે ચાખું છું છેલ્લા કટોરાં.
તોય મારા સાજણ રહે છે સાવ કોરા.

---------------------------વિમલ અગ્રાવત

Friday, March 5, 2010

સંકલ્પ

સંકલ્પ વિના એ શક્ય નથી
તું રોક નયનના આંસુ મથી
તું હાથની મુઠ્ઠી વાળી જો
રેખાઓ બધી બદલાઈ જશે !

--------- શેખાદમ આબુવાલા

Saturday, February 27, 2010

पिया संग खेलब होरी

सखि ऊ दिन अब कब अइहैं,
पिया संग खेलब होरी ।

बिसरत नाहिं सखी मन बसिया
केसर घोरि कमोरी ।
हेरि हिये मारी पिचकारी
मली कपोलन रोरी ।
पीत मुख अरुन भयो री -
पिया संग खेलब होरी ।

अलक लाल भइ पलक लाल भइ
तन-मन लाल भयो री ।
चुनरी सेज सबै अरु नारी
लाल ही लाल छयौ री ।
आन कोउ रंग न रह्यौ री -
पिया संग खेलब होरी ।

भ्रमित भई तब भरि अँकवरिया
धरि अँगुरिन की पोरी ।
पंकिल गुन-गुन गावन लागे
प्रेम सुधा-रस बोरी ।
अचल सुख उदय भयो री -
पिया संग खेलब होरी ।

----------------प्रेम नारायण ’पंकिल’

ફૂલોને

ફાગને ફળિયે ફૂલ બેઠાં બધાં
નાહકનો ભરી દાયરો હો જી,
રંગ-સુગંધનાં મૂલ કરે એવો
ક્યાં છે સોદાગર વાયરો હો જી?

--------------------પ્રધુમ્ન તન્ના

इस होली पे

इस होली पे यदि तुम न आए
तो मैं तुमसे रूठ जाऊँगी

किया था जो सखियों से वादा
तुमको उनसे मिलवाऊँगी
कैसे वादा अपना निभा पाऊँगी
इस होली पे यदि तुम न आए
तो मैं तुमसे रूठ जाऊँगी

बना रही हूँ
जो अपने हाथों से
प्रेम रंग
फिर वो किसको लगाऊँगी
इस होली पे यदि तुम न आए
तो मैं तुमसे रूठ जाऊँगी

कैसे तुम्हारे बिना
पकवानों की मिठास चख पाऊँगी
इस होली पे यदि तुम न आए
तो मैं तुमसे रूठ जाऊँगी

मालूम है मुझे तुम
जेठ की छुट्टियों में आओगे
तुम ही बताओ
तब भला मैं कहाँ से
फूलों की बहार लाऊँगी
इस होली पे यदि तुम न आए
तो मैं तुमसे रूठ जाऊँगी

ना मैं तुम्हें
पीली सरसों का हाल बताऊँगी
न पाती भेज कर
गाँव की मिटटी सूँघाऊँगी
इस होली पे यदि तुम न आए
तो मैं तुमसे रूठ जाऊँगी

ना सोमवार को मन्दिर
तुम्हारे लिए जाऊँगी
न देख कर चाँद को मुस्कराऊँगी
इस होली पे यदि तुम न आए
तो मैं तुमसे रूठ जाऊँगी

बादल भइया से कह कर
सावन में तुमको तड़पाऊँगी
ना रिमझिम बरसातों में
मधुर गीत सुनाऊँगी
देख लेना इस होली पे
यदि तुम न आए
तो मैं तुमसे रूठ जाउंगी

------------------अंजु गर्ग

होली की व्यथा

होली की हुल्लड़बाजी है, पड़ोस का लड़का पाजी है
मन बहार जाने को व्याकुल है, पर दरवाजे पर अब्बा मांजी हैं
चारो तरफ उमंग है, होली का हुडदंग है
कहीं गुलाल कहीं रंग है, कहीं गुझिया कहीं भंग है
लड़का लड़की के संग है, लड़की के वस्त्र तंग हैं
वो देखो उसने उसको रंग लगाया
लड़की को ज़रा गुस्सा नहीं आया
वो लड़कियां कैसे चहचहा रही हैं
आज लड़कों के साथ नहा रही हैं
पर मुझे कहाँ आज़ादी है
दरवाजे पर अब्बा मांजी हैं
काश मैं भी वहां होती
पडोसी की पिचकारी से खुद को भिगोती
वो हाथ मेरा पकड़ता, गालों पे रंग रगड़ता
कहती क्या गज़ब ढाते हो, होली का फायदा उठाते हो
देखो अपनी हद में रहो, जो चाहते हो मुंह से कहो
पर वो कहाँ मानता, मेरे दिल की बात जानता
मुझे सीने से लगाता, और स्पर्श सुख मिल जाता
पर किस्मत में कहाँ ये बाज़ी है
दरवाजे पर अब्बा मांजी हैं
काश वो छत पे आ जाये, सितम आज वो ढा जाये
करें तमाशा हंसी ठिठोली, मिल कर खेले जी भर होली
साल में मौका यही मिले है, पर हाय रे सूनी जाय रे होली
मुझ पर ये पहरेबाजी है
दरवाजे पर अब्बा मांजी हैं

-------------------------अनिल कुमार

Wednesday, February 10, 2010

आ चांदनी भी मेरी तरह जाग रही है

आ चांदनी भी मेरी तरह जाग रही है
पलकों पे सितारों को लिये रात खड़ी है

ये बात कि सूरत के भले दिल के बुरे हों
अल्लाह करे झूठ हो बहुतों से सूनी है

वो माथे का मतला हो कि होंठों के दो मिसरे
बचपन की ग़ज़ल ही मेरी महबूब रही है

ग़ज़लों ने वहीं ज़ुल्फ़ों के फैला दिये साये
जिन राहों पे देखा है बहुत धूप कड़ी है

हम दिल्ली भी हो आये हैं लाहौर भी घूमे
ऐ यार मगर तेरी गली तेरी गली है

-------------------बशीर बद्र

Monday, February 8, 2010

સજનવા

શબ્દને શોભે નહીં આ કાગઝી વસ્ત્રો સજનવા
આજથી પત્રોને બદલે લખજે નક્ષત્રો સજનવા

ખાલી હો તો પાછી તારી ઓઢણી લઈ લે સજનવા
ને હાથ સાથે હો તો કિંમત સો ગણી લઈ લે સજનવા

બે અમારા દૃ્ગ સજનવા, બે તમારા દૃગ સજનવા
વચ્ચેથી ગાયબ પછી બાકીનું આખુ જગ સજનવા

ક્યાં તો પીઝાનાં મિનારાને હવે પાડો સજનવા
નહીં તો મારી જેમ એને ઢળતા શિખવાડો સજનવા

સૂર્ય સામે એક આછું સ્મિત કર એવું સજનવા
થઈ પડે મુશ્કેલ એને ત્યાં ટકી રહેવુ સજનવા

આભને પળમાં બનાવી દે તું પારેવું સજનવા
થઈ જશે ભરપાઈ પૃથ્વીનું બધુ દેવું સજનવા

છે કશિશ કંઈ એવી આ કાયા કસુંબલમાં સજનવા
કે જાન સામેથી લુંટાવા ચાલી ચંબલમાં સજનવા

આજ કંઇ એવી કુશળતાથી રમો બાજી સજનવા
જીતનારા સંગ હારેલા યે હો રાજી સજનવા

ટેરવાં માગે છે તમને આટલું પૂછવા સજનવા
આંસુઓ સાથે અવાજો કઈ રીતે લૂછવા સજનવા

------------------ મુકુલ ચોક્સી

सर से चादर बदन से क़बा ले गई

सर से चादर बदन से क़बा ले गई
ज़िन्दगी हम फ़क़ीरों से क्या ले गई

मेरी मुठ्ठी में सूखे हुये फूल हैं
ख़ुशबुओं को उड़ा कर हवा ले गई

मैं समुंदर के सीने में चट्टान था
रात एक मौज आई बहा ले गई

हम जो काग़ज़ थे अश्कों से भीगे हुये
क्यों चिराग़ों की लौ तक हवा ले गई

चाँद ने रात मुझको जगा कर कहा
एक लड़की तुम्हारा पता ले गई

मेरी शोहरत सियासत से महफ़ूस है
ये तवायफ़ भी इस्मत बचा ले गई

---------------बशीर बद्र

परखना मत

परखना मत, परखने में कोई अपना नहीं रहता
किसी भी आईने में देर तक चेहरा नहीं रहता

बडे लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना
जहां दरिया समन्दर में मिले, दरिया नहीं रहता

हजारों शेर मेरे सो गये कागज की कब्रों में
अजब मां हूं कोई बच्चा मेरा ज़िन्दा नहीं रहता

तुम्हारा शहर तो बिल्कुल नये अन्दाज वाला है
हमारे शहर में भी अब कोई हमसा नहीं रहता

मोहब्बत एक खुशबू है, हमेशा साथ रहती है
कोई इन्सान तन्हाई में भी कभी तन्हा नहीं रहता

कोई बादल हरे मौसम का फ़िर ऐलान करता है
ख़िज़ा के बाग में जब एक भी पत्ता नहीं रहता

--------------------बशीर बद्र

ख़ुदा हम को

ख़ुदा हम को ऐसी ख़ुदाई न दे
कि अपने सिवा कुछ दिखाई न दे

ख़तावार समझेगी दुनिया तुझे
अब इतनी भी ज़्यादा सफ़ाई न दे

हँसो आज इतना कि इस शोर में
सदा सिसकियों की सुनाई न दे

अभी तो बदन में लहू है बहुत
कलम छीन ले रोशनाई न दे

मुझे अपनी चादर से यूँ ढाँप लो
ज़मीं आसमाँ कुछ दिखाई न दे

ग़ुलामी को बरकत समझने लगें
असीरों को ऐसी रिहाई न दे

मुझे ऐसी जन्नत नहीं चाहिए
जहाँ से मदीना दिखाई न दे

मैं अश्कों से नाम-ए-मुहम्मद लिखूँ
क़लम छीन ले रोशनाई न दे

ख़ुदा ऐसे इरफ़ान का नाम है
रहे सामने और दिखाई न दे

-------------बशीर बद्र

कुछ तो मैं

कुछ तो मैं भी बहुत दिल का कमज़ोर हूँ
कुछ मुहब्बत भी है फ़ितरतन बदगुमाँ

तज़करा कोई हो ज़िक्र तेरा रहा
अव्वल-ए-आख़िरश दरमियाँ दरमियाँ

जाने किस देश से दिल में आ जाते हैं
चांदनी रात में दर्द के कारवाँ

-------------------बशीर बद्र

कहीं चांद राहों में

कहीं चांद राहों में खो गया कहीं चांदनी भी भटक गई
मैं चराग़ वो भी बुझा हुआ मेरी रात कैसे चमक गई

मेरी दास्ताँ का उरूज था तेरी नर्म पलकों की छाँव में
मेरे साथ था तुझे जागना तेरी आँख कैसे झपक गई

कभी हम मिले तो भी क्या मिले वही दूरियाँ वही फ़ासले
न कभी हमारे क़दम बढ़े न कभी तुम्हारी झिझक गई

तुझे भूल जाने की कोशिशें कभी क़ामयाब न हो सकीं
तेरी याद शाख़-ए-गुलाब है जो हवा चली तो लचक गई

-------------------- बशीर बद्र

न जाने अश्क से आँखों में क्यों है आये हुए

न जाने अश्क से आँखों में क्यों है आये हुए
गुज़र गया ज़माना तुझे भुलाये हुए

जो मन्ज़िलें हैं तो बस रहरवान-ए-इश्क़ की हैं
वो साँस उखड़ी हुई पाँव डगमगाये हुए

न रहज़नों से रुके रास्ते मोहब्बत के
वो काफ़िले नज़र आये लुटे लुटाये हुए

अब इस के बाद मुझे कुछ ख़बर नहीं उन की
ग़म आशना हुए अपने हुए पराये हुए

ये इज़्तिराब सा क्या है कि मुद्दतें गुज़री
तुझे भुलाये हुए तेरी याद आये हुए

------------------फ़िराक़ गोरखपुरी

सर में सौदा भी नहीं

सर में सौदा भी नहीं, दिल में तमन्ना भी नहीं
लेकिन इस तर्क-ए-मोहब्बत का भरोसा भी नहीं

यूँ तो हंगामा उठाते नहीं दीवाना-ए-इश्क
मगर ऐ दोस्त, कुछ ऐसों का ठिकाना भी नहीं

मुद्दतें गुजरी, तेरी याद भी आई ना हमें
और हम भूल गये हों तुझे, ऐसा भी नहीं


ये भी सच है कि मोहब्बत में नहीं मैं मजबूर
ये भी सच है कि तेरा हुस्न कुछ ऐसा भी नहीं

दिल की गिनती ना यागानों में, ना बेगानों में
लेकिन इस ज़लवागाह-ए-नाज़ से उठता भी नहीं

बदगुमाँ हो के मिल ऐ दोस्त, जो मिलना है तुझे
ये झिझकते हुऐ मिलना कोई मिलना भी नहीं

शिकवा-ए-शौक करे क्या कोई उस शोख़ से जो
साफ़ कायल भी नहीं, साफ़ मुकरता भी नहीं

मेहरबानी को मोहब्बत नहीं कहते ऐ दोस्त
आह, मुझसे तो मेरी रंजिश-ए-बेजां भी नहीं

बात ये है कि सूकून-ए-दिल-ए-वहशी का मकाम
कुंज़-ए-ज़िन्दान भी नहीं, वुसत-ए-सहरा भी नहीं

मुँह से हम अपने बुरा तो नहीं कहते, कि "फ़िराक"
है तेरा दोस्त मगर आदमी अच्छा भी नहीं

-------------------फ़िराक़ गोरखपुरी

Thursday, February 4, 2010

रुखों के चांद

रुखों के चांद, लबों के गुलाब मांगे है
बदन की प्यास, बदन की शराब मांगे है

मैं कितने लम्हे न जाने कहाँ गँवा आया
तेरी निगाह तो सारा हिसाब मांगे है

मैं किस से पूछने जाऊं कि आज हर कोई
मेरे सवाल का मुझसे जवाब मांगे है

दिल-ए-तबाह का यह हौसला भी क्या कम है
हर एक दर्द से जीने की ताब मांगे है

बजा कि वज़ा-ए-हया भी है एक चीज़ मगर
निशात-ए-दिल तुझे बे-हिजाब मांगे है

-----------------जाँ निसार अख़्तर

यार को मैं ने मुझे यार ने सोने न दिया

यार को मैं ने मुझे यार ने सोने न दिया
रात भर तालि'-ए-बेदार ने सोने न दिया


एक शब बुलबुल-ए-बेताब के जागे न नसीब
पहलू-ए-गुल में कभी ख़ार ने सोने न दिया


रात भर कीं दिल-ए-बेताब ने बातें मुझ से
मुझ को इस इश्क़ के बीमार ने सोने न दिया

-----------------ख़्वाजा हैदर अली 'आतिश'

बुझ गया दिल

बुझ गया दिल हयात बाक़ी है
छुप गया चाँद रात बाक़ी है

हाले-दिल उन से कह चुके सौ बार
अब भी कहने की बात बाक़ी है

रात बाक़ी थी जब वो बिछड़े थे
कट गई उम्र रात बाक़ी है

इश्क़ में हम निभा चुके सबसे 'ख़ुमार'
बस एक ज़ालिम हयात बाक़ी है

-------------ख़ुमार बाराबंकवी

जब भी चाहें

जब भी चाहें एक नई सूरत बना लेते हैं लोग
एक चेहरे पर कई चेहरे सजा लेते हैं लोग

मिल भी लेते हैं गले से अपने मतलब के लिए
आ पड़े मुश्किल तो नज़रें भी चुरा लेते हैं लोग

है बजा उनकी शिकायत लेकिन इसका क्या इलाज
बिजलियाँ खुद अपने गुलशन पर गिरा लेते हैं लोग

हो खुशी भी उनको हासिल ये ज़रूरी तो नहीं
गम छुपाने के लिए भी मुस्कुरा लेते हैं लोग

ये भी देखा है कि जब आ जाये गैरत का मुकाम
अपनी सूली अपने काँधे पर उठा लेते हैं लोग


----------------क़तील शिफ़ाई

ज़िन्दगी में तो सभी प्यार किया करते हैं

ज़िन्दगी में तो सभी प्यार किया करते हैं
मैं तो मर कर भी मेरी जान तुझे चाहूँगा

तू मिला है तो ये एहसास हुआ है मुझको
ये मेरी उम्र मोहब्बत के लिये थोड़ी है
इक ज़रा सा ग़म-ए-दौराँ का भी हक़ है जिस पर
मैनें वो साँस भी तेरे लिये रख छोड़ी है
तुझपे हो जाऊँगा क़ुरबान तुझे चाहूँगा

अपने जज़्बात में नग़्मात रचाने के लिये
मैनें धड़कन की तरह दिल में बसाया है तुझे
मैं तसव्वुर भी जुदाई का भला कैसे करूँ
मैं ने क़िस्मत की लकीरों से चुराया है तुझे
प्यार का बन के निगेहबान तुझे चाहूँगा

तेरी हर चाप से जलते हैं ख़यालों में चिराग़
जब भी तू आये जगाता हुआ जादू आये
तुझको छू लूँ तो फिर ऐ जान-ए-तमन्ना मुझको
देर तक अपने बदन से तेरी ख़ुश्बू आये
तू बहारों का है उनवान तुझे चाहूँगा

----------------क़तील शिफ़ाई

Sunday, January 10, 2010

कुछ इस अदा से

कुछ इस अदा से आज वो पहलू-नशीं रहे
जब तक हमारे पास रहे हम नहीं रहे

ईमान-ए-कुफ़्र और न दुनियाअ व दीं रहे
ऐ इश्क़ शादबाश कि तनहा हमीं रहे

या रब किसी के राज़-ए-मोहब्बत की ख़ैर हो
दस्त-ए-जुनूँ रहे न रहे आस्तीं रहे

जा और कोई ज़ब्त की दुनिया तलाश कर
ऐ इश्क़ हम तो अब तेरे क़ाबिल नहीं रहे

मुझ को नहीं क़ुबूल दो आलम की वुस'अतें
क़िस्मत में कू-ए-यार की दो ग़ज़ ज़मीं रहे

दर्द-ए-ग़म-ए-फ़िराक़ के ये स ख़्त मरहले
हैरां हूँ मैं कि फिर भी तुम इतने हसीं रहे

इस इश्क़ की तलाफ़ी-ए-माफ़ात देखना
रोने की हसरतें हैं जब आँसू नहीं रहे

-------------------जिगर मुरादाबादी

Monday, January 4, 2010

કવિ શ્રી રાજેન્દ્ર શાહ ને શ્રધ્ધાંજલી

શિયાળુ સાંજ

શિયાળુ સાંજ ની વેળ છે થોડીઃ
હાલ્યને વાલમ! આંચને આધાર ખેલીએ આપણ
નીંદર આવશે મોડી.
ચીતરી મેલી ચોસર,મ્હોરાં સોહ્ય છે રૂડે રંગ,
ધોળિયો પાસો ઢાળિયે,જો'યે કોણ રે જીતે જંગ,
આબરૂ જેવી આણજે થાપણ,
ગઠરી મે'ય ગાંઠ ને છોડી,
હાલ્યને વાલમ! ખેલીએ આપણ,
નીંદરું આવશે મોડી.
નેણથી તો નેણ રીઝતા ને કાન, વેણની એને ટેવ,
વાત કીજે એલા કેમરે ભેટ્યાં ભીલડીને મા'દેવ.
કોણ ભોળુ,કોણ ભોળવાયૂં,
જે કાળજા રહ્યાં વ્હાલથી જોડી !
હાલ્યને વાલમ! ખેલીએ આપણ,
નીંદરું આવશે મોડી.
આપણી કને હોય તે બધુ હોડ માં મૂકી દઈ
હાર કે જીત વધાવી એ આપણ એકબીજાનાં થઈ,
અડધી રાતનું ઘેન ઘેરાતાં
ઓઢશું ભેળા એક પિછોડી;
હાલ્યને વાલમ! ખેલીએ આપણ,
નીંદરું આવશે મોડી.

------------------------ રાજેન્દ્ર શાહ

કેવડિયાનો કાંટો

કેવડિયાનો કાંટો અમને વનવગડામાં વાગ્યો રે,
મૂઈ રે એની મ્હેક, કલેજે દવ ઝાઝેરો લાગ્યો રે.
બાવળિયાની શૂળ હોય તો ખણી કાઢીએ મૂળ,
કેરથોરના કાંટા અમને કાંકરિયાળી ધૂળ;
આ તો અણદીઠાનો અંગે ખટકો જાલિમ જાગ્યો રે,
કેવડિયાનો કાંટો અમને વનવગડામાં વાગ્યો રે.
તાવ હોય જો કડો ટાઢિયો કવાથ કુલડી ભરીએ,
વાંતરિયો વળગાડ હોય તો ભૂવો કરી મંતરીએ;
રૂંવે રૂંવે પીડ જેની એ તો જડે નહિ કહીં ભાંગ્યો રે,
કેવડિયાનો કાંટો અમને વનવગડામાં વાગ્યો રે.

------------------------ રાજેન્દ્ર શાહ