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Wednesday, March 7, 2012

गीले बालों से छनता सूरज

शोख़ किरन ने
गीले रेशम बालों को जिस लम्हा छुआ
बेसाख़्ता हँस दी
पलकों तक आते-आते
सूरज की हँसी भी
गोरी की मस्कान की सूरत
सात रंग में भीग चुकी थी !

----------------परवीन शाकिर

ओस में भीगी हुई

ओस में भीगी हुई अमराईयों को चूमता
झूमता आता मलय का एक झोंका सर्द
काँपती-मन की मुँदी मासूम कलियाँ काँपतीं
और ख़ुशबू सा बिखर जाता हृदय का दर्द!

--------------------धर्मवीर भारती

मुग्धा

यह पान फूल सा मृदुल बदन
बच्चों की जिद सा अल्हड़ मन
तुम अभी सुकोमल, बहुत सुकोमल, अभी न सीखो प्यार!

कुँजो की छाया में झिलमिल
झरते हैं चाँदी के निर्झर
निर्झर से उठते बुदबुद पर
नाचा करती परियाँ हिलमिल

उन परियों से भी कहीं अधिक
हल्का फुल्का लहराता तन!
तुम अभी सुकोमल, बहुत सुकोमल, अभी न सीखो प्यार!

तुम जा सकतीं नभ पार अभी
ले कर बादल की मृदुल तरी
बिजुरी की नव चम चम चुनरी
से कर सकती सिंगार अभी

क्यों बाँध रही सीमाओं में
यह धूप सदृश्य खिलता यौवन?
तुम अभी सुकोमल, बहुत सुकोमल, अभी न सीखो प्यार!

अब तक तो छाया है खुमार
रेशम की सलज निगाहों पर
हैं अब तक काँपे नहीं अधर
पा कर अधरों का मृदुल भार

सपनों की आदी ये पलकें
कैसे सह पाएँगी चुम्बन?
तुम अभी सुकोमल, बहुत सुकोमल, अभी न सीखो प्यार!

यह पान फूल सा मृदुल बदन
बच्चों की जिद सा अल्हड़ मन!

-----------------------------धर्मवीर भारती

बेला महका

फिर,
बहुत दिनों बाद खिला बेला, मेरा आँगन महका!
फिर पंखुरियों, कमसिन परियों
वाली अल्हड़ तरुणाई,
पकड़ किरन की ड़ोर, गुलाबों के हिंडोर पर लहरायी
जैसे अनचित्ते चुम्बन से
लचक गयी हो अँगडाई,
डोल रहा साँसों में
कोई इन्द्रधनुष बहका बहका!
बहुत दिनों बाद खिला बेला, मेरा आँगन महका!

हाट बाट में, नगर डगर में
भूले भटके भरमाये,
फूलों के रूठे बादल फिर बाँहों में वापस आये
साँस साँस में उलझी कोई
नागिन सौ सौ बल खाये
ज्यौं कोई संगीत पास
आ आ कर दूर चला जाए
बहुत दिनों बाद खिला बेला, मेरा मन लहराये!

नील गगन में उड़ते घन में
भीग गया हो ज्यों खंजन
आज न बस में, विह्वल रस में, कुछ एसा बेकाबू मन,
क्या जादू कर गया नया
किस शहजादी का भोलापन
किसी फरिश्ते ने फिर
मेरे दर पर आज दिया फेरा
बहुत दिनों के बाद खिला बेला, महका आँगन मेरा!

आज हवाओं नाचो, गाओ
बाँध सितारों के नूपुर,
चाँद ज़रा घूँघट सरकाओ, लगा न देना कहीं नज़र!
इस दुनिया में आज कौन
मुझसे बढ कर है किस्मतवर
फूलों, राह न रोको! तुम
क्या जानो जी कितने दिन पर
हरी बाँसुरी को आयी है मोहन के होठों की याद!
बहुत दिनों के बाद
फिर, बहुत दिनों के बाद खिला बेला, मेरा आँगन महका!

------------------------धर्मवीर भारती

फागुन की शाम

घाट के रस्ते
उस बँसवट से
इक पीली-सी चिड़िया
उसका कुछ अच्छा-सा नाम है !
मुझे पुकारे !
ताना मारे,
भर आएँ, आँखड़ियाँ !
उन्मन, ये फागुन की शाम है !
घाट की सीढ़ी तोड़-तोड़ कर बन-तुलसा उग आयीं
झुरमुट से छन जल पर पड़ती सूरज की परछाईं
तोतापंखी किरनों में हिलती बाँसों की टहनी
यहीं बैठ कहती थी तुमसे सब कहनी-अनकहनी
आज खा गया बछड़ा माँ की रामायन की पोथी !
अच्छा अब जाने दो मुझको घर में कितना काम है !
इस सीढ़ी पर, यहीं जहाँ पर लगी हुई है काई
फिसल पड़ी थी मैं, फिर बाँहों में कितना शरमायी !
यहीं न तुमने उस दिन तोड़ दिया था मेरा कंगन !
यहाँ न आऊँगी अब, जाने क्या करने लगता मन !
लेकिन तब तो कभी न हममें तुममें पल-भर बनती !
तुम कहते थे जिसे छाँह है, मैं कहती थी घाम है !
अब तो नींद निगोड़ी सपनों-सपनों भटकी डोले
कभी-कभी तो बड़े सकारे कोयल ऐसे बोले
ज्यों सोते में किसी विषैली नागिन ने हो काटा
मेरे सँग-सँग अकसर चौंक-चौंक उठता सन्नाटा
पर फिर भी कुछ कभी न जाहिर करती हूँ इस डर से
कहीं न कोई कह दे कुछ, ये ऋतु इतनी बदनाम है !
ये फागुन की शाम है !

-------------------धर्मवीर भारती

Sunday, March 4, 2012

ज़िन्दा रहने की ख़्वाहिश

दाने तक जब पहुँची चिड़िया

जाल में थी

ज़िन्दा रहने की ख़्वाहिश ने मार दिया.

----------------परवीन शाकिर