Search the Collection

Friday, December 28, 2012

जो भी दुख याद न था याद आया

जो भी दुख याद न था याद आया
आज क्या जानिए क्या याद आया

फिर कोई हाथ है दिल पर जैसे
फिर तेरा अहदे-वफ़ायाद आया

जिस तरह धुंध में लिपटे हुए फूल
एक-इक नक़्श तेरा याद आया

ऐसी मजबूरी के आलम में कोई
याद आया भी तो क्या याद आया

ऐ रफ़ीक़ो! सरे-मंज़िल जाकर
क्या कोई आबला-पा याद आया

याद आया था बिछड़ना तेरा
फिर नहीं याद कि क्या याद आया

जब कोई ज़ख़्म भरा दाग़ बना
जब कोई भूल गया याद आया

ये मुहब्बत भी है क्या रोग ‘फ़राज़’
जिसको भूले वो सदा याद आया

--------------------------------अहमद फ़राज़  

Monday, November 12, 2012

वह बाग़ में मेरा मुंतज़िर था

वह बाग़ में मेरा मुंतज़िर था
और चांद तुलूअ हो रहा था
ज़ुल्फ़े-शबे-वस्ल खुल रही थी
ख़ुशबू साँसों में घुल रही थी
आई थी मैं अपने पी से मिलने
जैसे कोई गुल हवा में खिलने
इक उम्र के बाद हँसी थी
ख़ुद पर कितनी तवज्जः दी थी
पहना गहरा बसंती जोड़ा
और इत्र-ए-सुहाग में बसाया
आइने में ख़ुद को फिर कई बार
उसकी नज़रों से मैंने देखा
संदल से चमक रहा था माथा
चंदन से बदन दमक रहा था
होंठों पर बहुत शरीर लाली
गालों पे गुलाल खेलता था
बालों में पिरोए इतने मोती
तारों का गुमान हो रहा था
अफ़्शाँ की लकीर माँग में थी
काजल आँखों में हँस रहा था
कानों में मचल रही थी बाली
बाहों में लिपट रहा था गजरा
और सारे बदन से फूटता था
उसके लिए गीत जो लिखा था
हाथों में लिए दिये की थाली
उसके क़दमों में जाके बैठी
आई थी कि आरती उतारूँ
सारे जीवन को दान कर दूँ
देखा मेरे देवता ने मुझको
बाद इसके ज़रा-सा मुस्कराया
फिर मेरे सुनहरे थाल पर हाथ
रखा भी तो इक दिया उठाया
और मेरी तमाम ज़िन्दगी से
माँगी भी तो इक शाम माँगी

--------------------------------------परवीन शाकिर

Sunday, October 21, 2012

પિયર ગયેલી ભરવાડણની ગઝલ

પનઘટે છલકાતી ગાગર સાંભરે,
દી ઊગે ને રોજ સહીયર સાંભરે.

છેડલો ખેંચી શિરામણ માગતો,
વાસીદું વાળું ને દિયર સાંભરે.

ત્રાડ સાવજની પડે ભણકારમાં,
રાતના થરથરતું પાધર સાંભરે.

ઢોલિયે ઢાળું હું મારો દેહ ને,
બાથમાં લઈ લેતી નીંદર સાંભરે.

કાંબીયું ખાવડે ને હું ચોકીં ઊઠું,
ઝાંઝરો રણકે ને જંતર સાંભરે.

તાણ ભાભુજીએ કીધી'તી નકર,
કોણ બોલ્યું તું કે મહિયર સાંભરે.

મા! મને ગમતું નથી આ ગામમાં,
હાલ્ય, બચકું બાંધ, આયર સાંભરે.

------------------------------નયન દેસાઈ

Saturday, September 29, 2012

रस में डूबा हुआ लहराता बदन क्या कहना

रस में डूबा हुआ लहराता बदन क्या कहना
करवटें लेती हुई सुबह-ए-चमन क्या कहना

बाग़-ए-जन्नत में घटा जैसे बरस के खुल जाये
सोंधी सोंधी तेरी ख़ुश्बू-ए-बदन क्या कहना

जैसे लहराये कोई शोला कमर की ये लचक
सर ब-सर आतिश-ए-सय्याल बदन क्या कहना

क़ामत-ए-नाज़ लचकती हुई इक क़ौस-ओ-ए-क़ज़ाह
ज़ुल्फ़-ए-शब रंग का छया हुआ गहन क्या कहना

जिस तरह जल्वा-ए-फ़िर्दौस हवाओं से छीने
पैराहन में तेरे रंगीनी-ए-तन क्या कहना

जल्वा-ओ-पर्दा का ये रंग दम-ए-नज़्ज़ारा
जिस तरह अध-खुले घुँघट में दुल्हन क्या कहना

जगमगाहट ये जबीं की है के पौ फटती है
मुस्कुराहट है तेरी सुबह-ए-चमन क्या कहना

ज़ुल्फ़-ए-शबगूँ की चमक पैकर-ए-सीमें की दमक
दीप माला है सर-ए-गंग-ओ-जमन क्या कहना

--------------------------------फ़िराक़ गोरखपुरी

Thursday, September 27, 2012

जागती रात अकेली-सी लगे

जागती रात अकेली-सी लगे
ज़िंदगी एक पहेली-सी लगे

रुप का रंग-महल, ये दुनिया
एक दिन सूनी हवेली-सी लगे

हम-कलामी तेरी ख़ुश आए उसे
शायरी तेरी सहेली-सी लगे

मेरी इक उम्र की साथी ये ग़ज़ल
मुझ को हर रात नवेली-सी लगे

रातरानी सी वो महके ख़ामोशी
मुस्कुरादे तो चमेली-सी लगे

फ़न की महकी हुई मेंहदी से रची
ये बयाज़ उस की हथेली-सी लगे  

---------------------------अब्दुल अहद ‘साज़’

Tuesday, August 28, 2012

मौसम को इशारों से बुला क्यूँ नहीं लेते

मौसम को इशारों से बुला क्यूँ नहीं लेते
रूठा है अगर वो तो मना क्यूँ नहीं लेते

दीवाना तुम्हारा कोई ग़ैर नहीं
मचला भी तो सीने से लगा क्यूँ नहीं लेते

ख़त लिख कर कभी और कभी ख़त को जलाकर
तन्हाई को रंगीन बना क्यूँ नहीं लेते

तुम जाग रहे हो मुझको अच्छा नहीं लगता
चुपके से मेरी नींद चुरा क्यूँ नहीं लेते

----------------------------- ज़फ़र गोरखपुरी

और काँटों को लहू किसने पिलाया होगा

और काँटों को लहू किसने पिलाया होगा
हम-सा दीवाना चमन में कोई आया होगा

बेसबब कोई उलझता है भला कब किससे
तुमने गुज़रा हुआ कल याद दिलाया होगा

जुज़ हमारे ऐ सुलगती हुई तन्हाई तुझे
ऐसे सीने से भला किसने लगाया होगा

कोई आया है न ‘शहज़ाद’ कोई आएगा
वहम ने याद के पर्दों को हिलाया होगा

---------------------------फ़रहत शहज़ाद

मसीहा उंगलियां तेरी

मुझे इक बोझ की सूरत
उठाकर शाम कांधे पर

जब अपने घर पटक देती है लाकर
तेरे होठों की ज़िंदा मुस्कराहट

उठाती है मुझे
कहती है आओ

तुम्हारा बोझ पलकों पर उठा लूँ
सब अच्छा है

सभी ने घर में खाना खा लिया है
बघारी दाल, सोंधी रोटियाँ, आलू की सब्ज़ी, गर्म चाय

और उससे भी बहुत मीठा तेरा अंदाज़े दिलदारी
तेरी मानूस ग़मख़ारी

हथेली तेल बनकर जज्ब़ हो जाती है मेरे गर्म सर में
समा जाती हैं बालों में मसीहा उंगलियां तेरी

मुझे महसूस होता है
मेरे बिखरे हुए आज़ा दुबारा जुड़ गए हैं....

----------------------------- ज़फ़र गोरखपुरी

प्यार करने की यह इस दिल को सज़ा दी जाए

प्यार करने की यह इस दिल को सज़ा दी जाए
उसकी तस्वीर सरे-आम लगा दी जाए

ख़त में इस बार उसे भेजिये सूखा पत्ता
और उस पत्ते पे इक आँख बना दी जाए

इतनी पी जाए कि मिट जाए मन-ओ-तकी तमीज़
यानि ये होश की दीवार गिरा दी जाए

आज हर शय का असर लगता है उल्टा यारो
आज `शहज़ाद' को जीने की दुआ दी जाए

---------------------------फ़रहत शहज़ाद

मिले किसी से नज़र तो समझो ग़ज़ल हुई ‎

 मिले किसी से नज़र तो समझो ग़ज़ल हुई
रहे अपनी ख़बर तो समझो ग़ज़ल हुई

मिला के नज़रों को वो हया से फिर,
झुका ले कोई नज़र तो समझो ग़ज़ल हुई

इधर मचल कर उन्हें पुकारे जुनूँ मेरा,
भड़क उठे दिल उधर तो समझो ग़ज़ल हुई

उदास बिस्तर की सिलवटे जब तुम्हें चुभें,
न सो सको रात भर तो समझो ग़ज़ल हुई

वो बदगुमाँ हो तो शेर सूझे न शायरी,
वो महरबाँ हो ज़फ़र तो समझो ग़ज़ल हुई
----------------------------- ज़फ़र गोरखपुरी

कोंपले फिर फूट आईं शाख़ पर कहना उसे

कोंपले फिर फूट आँई शाख पर कहना उसे
वो न समझा है न समझेगा मगर कहना उसे

वक़्त का तूफ़ान हर इक शय बहा के ले गया
कितनी तनहा हो गयी है रहगुज़र कहना उसे

जा रहा है छोड़ कर तनहा मुझे जिसके लिए
चैन न दे पायेगा वो सीमज़र कहना उसे

रिस रहा हो खून दिल से लब मगर हँसते रहे
कर गया बर्बाद मुझको ये हुनर कहना उसे

जिसने ज़ख्मों से मेरा 'शहज़ाद' सीना भर दिया
मुस्कुरा कर आज क्या है चारागर कहना उसे

---------------------------फ़रहत शहज़ाद

‎जिस्म छूती है जब आ आ के पवन बारिश में

‎जिस्म छूती है जब आ आ के पवन बारिश में
और बढ़ जाती है कुछ दिल की जलन बारिश में

मेरे अतराफ़ छ्लक पड़ती हैं मीठी झीलें
जब नहाता है कोई सीमबदन बारिश में

दूध में जैसे कोई अब्र का टुकड़ा घुल जाए
ऐसा लगता है तेरा सांवलापन बारिश में

नद्दियाँ सारी लबालब थीं मगर पहरा था
रह गए प्यासे मुरादों के हिरन बारिश में

अब तो रोके न रुके आंख का सैलाब सखी
जी को आशा थी कि आएंगे सजन बारिश में

बाढ़ आई थी ज़फ़र ले गई घरबार मेरा
अब किसे देखने जाऊं मैं वतन, बारिश में

----------------------------- ज़फ़र गोरखपुरी

जब घटा कोई टूट कर बरसे

जब घटा कोई टूटकर बरसे
दिल मेरा तेरे लम्स को तरसे

फिर तेरा नाम शाम तन्हाई
सहमी-सहमी हैं धड़कनें डर से

हाल अन्दर का बस ख़ुदा जाने
कितना रौशन है दीप बाहर से

जाने शहज़ाद बिन तेरे जीना
बूँद जैसे जुदा समन्दर से

---------------------------फ़रहत शहज़ाद

दिल-ऐ-पुर खूँ की इक गुलाबी से

दिल-ऐ-पुर खूँ की इक गुलाबी से
उम्र भर हम रहे शराबी से

दिल दहल जाए है सहर से आह
रात गुज़रेगी किस खराबी से

खिलना कम कम कली ने सीखा है
उस की आंखों की नीम-ख्वाबी से

काम थे इश्क में बहुत से 'मीर'
हम ही फ़ारिग हुए शिताबी से

--------------------------- मीर तक़ी 'मीर'

खुली जो आँख तो वो था न वो ज़माना था

ख़ुली जो आँख तो वो था न वो ज़माना था
दहकती आग थी तन्हाई थी फ़साना था

ग़मों ने बाँट लिया है मुझे यूँ आपस में
के जैसे मैं कोई लूटा हुआ ख़ज़ाना था

ये क्या के चंद ही क़दमों पे थक के बैठ गये
तुम्हें तो साथ मेरा दूर तक निभाना था

मुझे जो मेरे लहू में डुबो के गुज़रा है
वो कोई ग़ैर नहीं यार एक पुराना था

भरम ख़ुलूस-ओ-मोहब्बत का जाँ रह जाता
ज़रा सी देर मेरा प्यार तो आज़माना था

ख़ुद अपने हाथ से "शहज़ाद" उस को काट दिया
के जिस दरख़्त के टहनी पे आशियाना था

---------------------------फ़रहत शहज़ाद

मेरे बाद किधर जाएगी तन्हाई

मेरे बाद किधर जाएगी तन्हाई
मैं जो मरा तो मर जाएगी तन्हाई

मैं जब रो रो के दरिया बन जाऊँगा
उस दिन पार उतर जाएगी तन्हाई

तन्हाई को घर से रुख़्सत कर तो दो
सोचो किस के घर जाएगी तन्हाई

वीराना हूँ आबादी से आया हूँ
देखेगी तो डर जाएगी तन्हाई

यूँ आओ कि पावों की भी आवाज़ न हो
शोर हुआ तो मर जाएगी तन्हाई

----------------------------- ज़फ़र गोरखपुरी

Sunday, August 19, 2012

सुबह के दर्द को रातों की जलन को भूलें

सुबह के दर्द को रातों की जलन को भूलें
किसके घर जायेँ कि उस वादा-शिकन को भूलें

आज तक चोट दबाये नहीं दबती दिल की
किस तरह उस सनम-ए-संगबदन को भूलें

अब सिवा इसके मदावा-ए-ग़म-ए-दिल क्या है
इतनी पी जायेँ कि हर रंज-ओ-मेहन को भूलें

और तहज़ीब-ए-गम-ए-इश्क़ निबाह दे कुछ दिन
आख़िरी वक़्त में क्या अपने चलन को भूलें

-------------------------जाँ निसार अख़्तर

मैं तनहा हूँ , नहीं भी हूँ

मैं तनहा हूँ , नहीं भी हूँ
के मेरा ज़हन खाली एक पल को भी नहीं रहता
न जाने किन खयालों के सफरनामे
हमेशा सामने रहते हैं जिनको पढता रहता हूँ.
समंदर के मनाज़िर,
शोरिशें,
मौजों की बर्क-आमेज़ तक़रीरें,
रुपहले, रूई जैसे नर्म
मजनूं बादलों के रक्स की थिरकन,
फजाओं से उभरती ताएरों की जानी-पहचानी,
मगर, बेलौस आवाजें
मैं सुनता हूँ
मुझे महसूस होता है
के मैं खामोश-लब, बे-ख्वाब आँखें, मुन्जमिद चेहरा
हथेली पर लिए
बज्मे-तरब में बेहिसो-बेजान बैठा हूँ.
अचानक सारी आवाजें बदल जाती हैं शोलों में
हरारत दौड़कर माहौल के शाने हिलाती है
मुझे भी छू के आहिस्ता से कुछ कहती है कानों में
मेरी बे-ख्वाब आंखों में उतर आतें हैं फिर से ख्वाब
होंठों पर हरारत के लबों का लम्स पाकर
मुनजमिद चेहरे में एक तहरीक सी होती है
ख़ुद को ज़िंदगी के खुश्नावा आहंग से लबरेज़ पाता हूँ
मैं तनहा हूँ, नहीं भी हूँ. 

 ----------------------------------ज़ैदी जाफ़र रज़ा

Friday, August 10, 2012

तेरी आवाज़

रात सुनसान थी, बोझल थी फज़ा की साँसें
रूह पे छाये थे बेनाम ग़मों के साए
दिल को ये ज़िद थी कि तू आए तसल्ली देने
मेरी कोशिश थी कि कमबख्त को नींद आ जाए

देर तक आंखों में चुभती रही तारों कि चमक
देर तक ज़हन सुलगता रहा तन्हाई में
अपने ठुकराए हुए दोस्त की पुरसिश के लिए
तू न आई मगर इस रात की पहनाई में

यूँ अचानक तेरी आवाज़ कहीं से आई
जैसे परबत का जिगर चीर के झरना फूटे
या ज़मीनों कि मुहब्बत में तड़प कर नागाह
आसमानों से कोई शोख़ सितारा टूटे

शहद सा घुल गया तल्खा़बः-ए-तन्हाई में
रंग सा फैल गया दिल के सियहखा़ने में
देर तक यूँ तेरी मस्ताना सदायें गूंजीं
जिस तरह फूल चटखने लगें वीराने में

तू बहुत दूर किसी अंजुमन-ए-नाज़ में थी
फिर भी महसूस किया मैं ने कि तू आई है
और नग्मों में छुपा कर मेरे खोये हुए ख्वाब
मेरी रूठी हुई नींदों को मना लाई है

रात की सतह पे उभरे तेरे चेहरे के नुकूश
वही चुपचाप सी आँखें वही सादा सी नज़र
वही ढलका हुआ आँचल वही रफ़्तार का ख़म
वही रह रह के लचकता हुआ नाज़ुक पैकर

तू मेरे पास न थी फिर भी सहर होने तक
तेरा हर साँस मेरे जिस्म को छू कर गुज़रा
क़तरा क़तरा तेरे दीदार की शबनम टपकी
लम्हा लम्हा तेरी ख़ुशबू से मुअत्तर गुज़रा

अब यही है तुझे मंज़ूर तो ऐ जान-ए-बहार
मैं तेरी राह न देखूँगा सियाह रातों में
ढूंढ लेंगी मेरी तरसी हुई नज़रें तुझ को
नग़्मा-ओ-शेर की उभरी हुई बरसातों में

अब तेरा प्यार सताएगा तो मेरी हस्ती
तेरी मस्ती भरी आवाज़ में ढल जायेगी
और ये रूह जो तेरे लिए बेचैन सी है
गीत बन कर तेरे होठों पे मचल जायेगी

तेरे नग्मात तेरे हुस्न की ठंडक लेकर
मेरे तपते हुए माहौल में आ जायेंगे
चाँद घड़ियों के लिए हो कि हमेशा के लिए
मेरी जागी हुई रातों को सुला जायेंगे

-------------------------------साहिर लुधियानवी

Thursday, August 9, 2012

अव्वल अव्वल की दोस्ती

अव्वल अव्वल की दोस्ती है अभी
इक ग़ज़ल है कि हो रही है अभी

मैं भी शहरे-वफ़ा में नौवारिद
वो भी रुक रुक के चल रही है अभी

मैं भी ऐसा कहाँ का ज़ूद शनास
वो भी लगता है सोचती है अभी

दिल की वारफ़तगी है अपनी जगह
फिर भी कुछ एहतियात सी है अभी

गरचे पहला सा इज्तिनाब नहीं
फिर भी कम कम सुपुर्दगी है अभी

कैसा मौसम है कुछ नहीं खुलता
बूंदा-बांदी भी धूप भी है अभी

ख़ुद-कलामी में कब ये नशा था
जिस तरह रु-ब-रू कोई है अभी

क़ुरबतें लाख खूबसूरत हों
दूरियों में भी दिलकशी है अभी

फ़सले-गुल में बहार पहला गुलाब
किस की ज़ुल्फ़ों में टांकती है अभी

सुबह नारंज के शिगूफ़ों की
किसको सौगात भेजती है अभी

रात किस माह -वश की चाहत में
शब्नमिस्तान सजा रही है अभी

मैं भी किस वादी-ए-ख़याल में था
बर्फ़ सी दिल पे गिर रही है अभी

मैं तो समझा था भर चुके सब ज़ख़्म
दाग़ शायद कोई कोई है अभी

दूर देशों से काले कोसों से
कोई आवाज़ आ रही है अभी

ज़िन्दगी कु-ए-ना-मुरादी से
किसको मुड़ मुड़ के देखती है अभी

इस क़दर खीच गयी है जान की कमान
ऐसा लगता है टूटती है अभी

ऐसा लगता है ख़ल्वत-ए-जान में
वो जो इक शख़्स था वोही है अभी

मुद्दतें हो गईं 'फ़राज़' मगर
वो जो दीवानगी थी, वही है अभी

------------------------अहमद फ़राज़

Thursday, July 26, 2012

इसी में ख़ुश हूँ

इसी में ख़ुश हूँ मेरा दुख कोई तो सहता है
चली चलूँ कि जहाँ तक ये साथ रहता है

ज़मीन-ए-दिल यूँ ही शादाब तो नहीं ऐ दोस्त
क़रीब में कोई दरिया ज़रूर बहता है

न जाने कौन सा फ़िक़्रा कहाँ रक़्म हो जाये
दिलों का हाल भी अब कौन किस से कहता है

मेरे बदन को नमी खा गई अश्कों की
भरी बहार में जैसे मकान ढहता है

---------------------------परवीन शाकिर


शाम-ए-ग़म कुछ उस निगाह-ए-नाज़ की बातें करो

शाम-ए-ग़म कुछ उस निगाह-ए-नाज़ की बातें करो
बेख़ुदी बढ़ती चली है राज़ की बातें करो

ये सुकूत-ए-नाज़, ये दिल की रगों का टूटना
ख़ामुशी में कुछ शिकस्त-ए-साज़ की बातें करो

निकहत-ए-ज़ुल्फ़-ए-परीशां, दास्तान-ए-शाम-ए-ग़म
सुबह होने तक इसी अंदाज़ की बातें करो

कूछ क़फ़स की तीलियों से छन रहा है नूर सा
कुछ फ़िज़ा, कुछ हसरत-ए-परवाज़ की बातें करो

जिसकी फ़ुरक़त ने पलट दी इश्क़ की काया फ़िराक़
आज उसी ईसा नफ़स दमसाज़ की बातें करो

------------------------------फ़िराक़ गोरखपुरी

Saturday, June 30, 2012

मौजों का अक्स है

मौजों का अक्स है, ख़त-ए-जाम-ए-शराब में
या ख़ून उछल रहा है, रग-ए-माहताब में

वो मौत है कि कहते हैं, जिसको सुकून सब
वो ऐन ज़िन्दगी है,जो है इज़्तराब में

दोज़ख़ भी एक जल्वा-ए-फ़िरदौस-ए-हुस्न है
जो इस से बेख़बर हैं, वही हैं अज़ाब में

उस दिन भी मेरी रूह थी, मह्व-ए-निशात-ए-दीद
मूसा उलझ गए थे, सवाल-ओ-जवाब में

मैं इज़्तराब-ए-शौक़ कहूँ या जमाल-ए-दोस्त
इक बर्क़ है जो कौंध रही है नक़ाब में
 
-------------------------------असग़र गोण्डवी

हर ख़ुशी में कोई कमी-सी है

हर ख़ुशी में कोई कमी-सी है
हँसती आँखों में भी नमी-सी है

दिन भी चुप चाप सर झुकाये था
रात की नब्ज़ भी थमी-सी है

किसको समझायें किसकी बात नहीं
ज़हन और दिल में फिर ठनी-सी है

ख़्वाब था या ग़ुबार था कोई
गर्द इन पलकों पे जमी-सी है

कह गए हम ये किससे दिल की बात
शहर में एक सनसनी-सी है

हसरतें राख हो गईं लेकिन
आग अब भी कहीं दबी-सी है

-----------------------जावेद अख़्तर

Sunday, June 10, 2012

नहीं जो दिल में जगह तो नज़र में रहने दो

नहीं जो दिल में जगह तो नज़र में रहने दो
मेरी हयात को अपने असर में रहने दो

कोई तो ख़्वाब मेरी रात का मुक़द्दर हो
कोई तो अक्स मेरी चश्म-ए-तर में रहने दो

मैं अपनी सोच को तेरी गली मैं छोड़ आया
तो अपनी याद को मेरे हुनर में रहने दो

ये मंजिलें तो किसी और का मुक़द्दर हैं
मुझे बस अपने जूनून के सफ़र में रहने दो

हकीक़तें तो बहुत तल्ख़ हो गयी हैं "फ़राज़"
मेरे वजूद को ख़्वाबों के घर में रहने दो

---------------------------------अहमद फ़राज़

Thursday, June 7, 2012

लोग टूट जाते हैं

लोग टूट जाते हैं, एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते, बस्तियाँ जलाने में

और जाम टूटेंगे, इस शराबख़ाने में
मौसमों के आने में, मौसमों के जाने में

हर धड़कते पत्थर को, लोग दिल समझते हैं
उम्र बीत जाती है, दिल को दिल बनाने में

फ़ाख़्ता की मजबूरी ,ये भी कह नहीं सकती
कौन साँप रखता है, उसके आशियाने में

दूसरी कोई लड़की, ज़िंदगी में आएगी
कितनी देर लगती है, उसको भूल जाने में

-------------------------------------बशीर बद्र

Saturday, June 2, 2012

जब लगे ज़ख़्म तो

जब लगे ज़ख़्म तो क़ातिल को दुआ दी जाये
है यही रस्म तो ये रस्म उठा दी जाये

तिश्नगी कुछ तो बुझे तिश्नालब-ए-ग़म की
इक नदी दर्द के शहरों में बहा दी जाये

दिल का वो हाल हुआ ऐ ग़म-ए-दौराँ के तले
जैसे इक लाश चट्टानों में दबा दी जाये

हम ने इंसानों के दुख दर्द का हल ढूँढ लिया
क्या बुरा है जो ये अफ़वाह उड़ा दी जाये

हम को गुज़री हुई सदियाँ तो न पहचानेंगी
आने वाले किसी लम्हे को सदा दी जाये

फूल बन जाती हैं दहके हुए शोलों की लवें
शर्त ये है के उन्हें ख़ूब हवा दी जाये

कम नहीं नशे में जाड़े की गुलाबी रातें
और अगर तेरी जवानी भी मिला दी जाये

हम से पूछो ग़ज़ल क्या है ग़ज़ल का फ़न क्या है
चन्द लफ़्ज़ों में कोई आह छुपा दी जाये

-----------------------------जाँ निसार अख़्तर

Friday, May 18, 2012

कभी यूँ भी आ

कभी यूँ भी आ मेरी आँख में के मेरी नज़र को ख़बर न हो
मुझे एक रात नवाज़ दे मगर उसके बाद सहर न हो

वो बड़ा रहीम-ओ-करीम है मुझे ये सिफ़त भी अता करे
तुझे भूलने की दुआ करूँ तो दुआ में मेरी असर न हो

मेरे बाज़ुओं में थकी-थकी, अभी महव-ए-ख़्वाब है चांदनी
न उठे सितारों की पालकी, अभी आहटों का गुज़र न हो

ये ग़ज़ल कि जैसे हिरन की आँखों में पिछली रात की चांदनी
न बुझे ख़राबे की रोशनी, कभी बेचिराग़ ये घर न हो

वो फ़िराक़ हो या विसाल हो, तेरी याद महकेगी एक दिन
वो गुलाब बन के खिलेगा क्या, जो चिराग़ बन के जला न हो

कभी धूप दे, कभी बदलियाँ, दिल-ओ-जाँ से दोनों क़ुबूल हैं
मगर उस नगर में न क़ैद कर जहाँ ज़िन्दगी की हवा न हो

कभी दिन की धूप में झूम के कभी शब के फूल को चूम के
यूँ ही साथ साथ चलें सदा कभी ख़त्म अपना सफ़र न हो

मेरे पास मेरे हबीब आ ज़रा और दिल के क़रीब आ
तुझे धड़कनों में बसा लूँ मैं के बिछड़ने का कोई डर न हो 
 
--------------------------------------------------------बशीर बद्र

Saturday, April 28, 2012

उस बेवफ़ा का शहर है

उस बेवफ़ा का शहर है और हम हैं दोस्तों|
अश्क-ए-रवाँ की नहर है और हम हैं दोस्तों|

शाम-ए-आलम ढली तो चली दर्द की हवा,
रातों का पिछला पहर है और हम हैं दोस्तों|

आँखों में उड़ रही है लुटी महफ़िलों की धूल,
इब्रत बर-ए-दहर है और हम हैं दोस्तों|

ये अजनबी सी मंज़िलें और रफ़्तगा की याद,
तन्हाइयों का ज़हर है और हम हैं दोस्तों|

---------------------मुनीर नियाज़ी

Wednesday, April 18, 2012

किताबों में मेरे फ़साने ढूँढते हैं

किताबों में मेरे फ़साने ढूँढते हैं,
नादां हैं गुज़रे ज़माने ढूँढते हैं ।

जब वो थे तलाशे-ज़िंदगी भी थी,
अब तो मौत के ठिकाने ढूँढते हैं ।

कल ख़ुद ही अपनी महफ़िल से निकाला था,
आज हुए से दीवाने ढूँढते हैं ।

मुसाफ़िर बे-ख़बर हैं तेरी आँखों से,
तेरे शहर में मैख़ाने ढूँढते हैं ।

तुझे क्या पता ऐ सितम ढाने वाले,
हम तो रोने के बहाने ढूँढते हैं ।

उनकी आँखों को यूँ ना देखो ’फ़राज़’,
नए तीर हैं, निशाने ढूँढते हैं ।

---------------------अहमद फ़राज़

इज़्हार

पत्थर की तरह अगर मैं चुप रहूँ
तो ये न समझ कि मेरी हस्ती
बेग़ान-ए-शोल-ए-वफ़ा है
तहक़ीर से यूँ न देख मुझको
ऐ संगतराश! तेरा तेशा
मुम्किन है कि ज़र्बे-अव्वली से
पहचान सके कि मेरे दिल में
जो आग तेरे लिए दबी है
वो आग ही मेरी ज़िंदगी है

----------------अहमद फ़राज़

Tuesday, April 3, 2012

चांद तन्हा है आसमां तन्हा

चाँद तन्हा है आसमाँ तन्हा,
दिल मिला है कहाँ-कहाँ तन्हा

बुझ गई आस, छुप गया तारा,
थरथराता रहा धुआँ तन्हा

ज़िन्दगी क्या इसी को कहते हैं,
जिस्म तन्हा है और जाँ तन्हा

हमसफ़र कोई गर मिले भी कभी,
दोनों चलते रहें कहाँ तन्हा

जलती-बुझती-सी रोशनी के परे,
सिमटा-सिमटा-सा एक मकाँ तन्हा

राह देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जाएँगे ये जहाँ तन्हा।

----------------------मीनाकुमारी

मुहब्बत बहार के फूलों की तरह

मुहब्बत
बहार के फूलों की तरह मुझे अपने जिस्म के रोएं रोएं से
फूटती मालूम हो रही है
मुझे अपने आप पर एक
ऐसे बजरे का गुमान हो रहा है जिसके रेशमी बादबान
तने हुए हों और जिसे
पुरअसरार हवाओं के झोंके आहिस्ता आहिस्ता दूर दूर
पुर सुकून झीलों
रौशन पहाड़ों और
फूलों से ढके हुए गुमनाम ज़ंजीरों की तरफ लिये जा रहे हों
वह और मैं
जब ख़ामोश हो जाते हैं तो हमें
अपने अनकहे, अनसुने अल्फ़ाज़ में
जुगनुओं की मानिंद रह रहकर चमकते दिखाई देते हैं
हमारी गुफ़्तगू की ज़बान
वही है जो
दरख़्तों, फूलों, सितारों और आबशारों की है
यह घने जंगल
और तारीक रात की गुफ़्तगू है जो दिन निकलने पर
अपने पीछे
रौशनी और शबनम के आँसु छोड़ जाती है, महबूब
आह
मुहब्बत!

---------------------मीना कुमारी

Wednesday, March 7, 2012

गीले बालों से छनता सूरज

शोख़ किरन ने
गीले रेशम बालों को जिस लम्हा छुआ
बेसाख़्ता हँस दी
पलकों तक आते-आते
सूरज की हँसी भी
गोरी की मस्कान की सूरत
सात रंग में भीग चुकी थी !

----------------परवीन शाकिर

ओस में भीगी हुई

ओस में भीगी हुई अमराईयों को चूमता
झूमता आता मलय का एक झोंका सर्द
काँपती-मन की मुँदी मासूम कलियाँ काँपतीं
और ख़ुशबू सा बिखर जाता हृदय का दर्द!

--------------------धर्मवीर भारती

मुग्धा

यह पान फूल सा मृदुल बदन
बच्चों की जिद सा अल्हड़ मन
तुम अभी सुकोमल, बहुत सुकोमल, अभी न सीखो प्यार!

कुँजो की छाया में झिलमिल
झरते हैं चाँदी के निर्झर
निर्झर से उठते बुदबुद पर
नाचा करती परियाँ हिलमिल

उन परियों से भी कहीं अधिक
हल्का फुल्का लहराता तन!
तुम अभी सुकोमल, बहुत सुकोमल, अभी न सीखो प्यार!

तुम जा सकतीं नभ पार अभी
ले कर बादल की मृदुल तरी
बिजुरी की नव चम चम चुनरी
से कर सकती सिंगार अभी

क्यों बाँध रही सीमाओं में
यह धूप सदृश्य खिलता यौवन?
तुम अभी सुकोमल, बहुत सुकोमल, अभी न सीखो प्यार!

अब तक तो छाया है खुमार
रेशम की सलज निगाहों पर
हैं अब तक काँपे नहीं अधर
पा कर अधरों का मृदुल भार

सपनों की आदी ये पलकें
कैसे सह पाएँगी चुम्बन?
तुम अभी सुकोमल, बहुत सुकोमल, अभी न सीखो प्यार!

यह पान फूल सा मृदुल बदन
बच्चों की जिद सा अल्हड़ मन!

-----------------------------धर्मवीर भारती

बेला महका

फिर,
बहुत दिनों बाद खिला बेला, मेरा आँगन महका!
फिर पंखुरियों, कमसिन परियों
वाली अल्हड़ तरुणाई,
पकड़ किरन की ड़ोर, गुलाबों के हिंडोर पर लहरायी
जैसे अनचित्ते चुम्बन से
लचक गयी हो अँगडाई,
डोल रहा साँसों में
कोई इन्द्रधनुष बहका बहका!
बहुत दिनों बाद खिला बेला, मेरा आँगन महका!

हाट बाट में, नगर डगर में
भूले भटके भरमाये,
फूलों के रूठे बादल फिर बाँहों में वापस आये
साँस साँस में उलझी कोई
नागिन सौ सौ बल खाये
ज्यौं कोई संगीत पास
आ आ कर दूर चला जाए
बहुत दिनों बाद खिला बेला, मेरा मन लहराये!

नील गगन में उड़ते घन में
भीग गया हो ज्यों खंजन
आज न बस में, विह्वल रस में, कुछ एसा बेकाबू मन,
क्या जादू कर गया नया
किस शहजादी का भोलापन
किसी फरिश्ते ने फिर
मेरे दर पर आज दिया फेरा
बहुत दिनों के बाद खिला बेला, महका आँगन मेरा!

आज हवाओं नाचो, गाओ
बाँध सितारों के नूपुर,
चाँद ज़रा घूँघट सरकाओ, लगा न देना कहीं नज़र!
इस दुनिया में आज कौन
मुझसे बढ कर है किस्मतवर
फूलों, राह न रोको! तुम
क्या जानो जी कितने दिन पर
हरी बाँसुरी को आयी है मोहन के होठों की याद!
बहुत दिनों के बाद
फिर, बहुत दिनों के बाद खिला बेला, मेरा आँगन महका!

------------------------धर्मवीर भारती

फागुन की शाम

घाट के रस्ते
उस बँसवट से
इक पीली-सी चिड़िया
उसका कुछ अच्छा-सा नाम है !
मुझे पुकारे !
ताना मारे,
भर आएँ, आँखड़ियाँ !
उन्मन, ये फागुन की शाम है !
घाट की सीढ़ी तोड़-तोड़ कर बन-तुलसा उग आयीं
झुरमुट से छन जल पर पड़ती सूरज की परछाईं
तोतापंखी किरनों में हिलती बाँसों की टहनी
यहीं बैठ कहती थी तुमसे सब कहनी-अनकहनी
आज खा गया बछड़ा माँ की रामायन की पोथी !
अच्छा अब जाने दो मुझको घर में कितना काम है !
इस सीढ़ी पर, यहीं जहाँ पर लगी हुई है काई
फिसल पड़ी थी मैं, फिर बाँहों में कितना शरमायी !
यहीं न तुमने उस दिन तोड़ दिया था मेरा कंगन !
यहाँ न आऊँगी अब, जाने क्या करने लगता मन !
लेकिन तब तो कभी न हममें तुममें पल-भर बनती !
तुम कहते थे जिसे छाँह है, मैं कहती थी घाम है !
अब तो नींद निगोड़ी सपनों-सपनों भटकी डोले
कभी-कभी तो बड़े सकारे कोयल ऐसे बोले
ज्यों सोते में किसी विषैली नागिन ने हो काटा
मेरे सँग-सँग अकसर चौंक-चौंक उठता सन्नाटा
पर फिर भी कुछ कभी न जाहिर करती हूँ इस डर से
कहीं न कोई कह दे कुछ, ये ऋतु इतनी बदनाम है !
ये फागुन की शाम है !

-------------------धर्मवीर भारती

Sunday, March 4, 2012

ज़िन्दा रहने की ख़्वाहिश

दाने तक जब पहुँची चिड़िया

जाल में थी

ज़िन्दा रहने की ख़्वाहिश ने मार दिया.

----------------परवीन शाकिर

Sunday, February 26, 2012

रात आधी, खींच कर

रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।

फ़ासला था कुछ हमारे बिस्तरों में
और चारों ओर दुनिया सो रही थी,
तारिकाएँ ही गगन की जानती हैं
जो दशा दिल की तुम्हारे हो रही थी,
मैं तुम्हारे पास होकर दूर तुमसे
अधजगा-सा और अधसोया हुआ सा,

रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।

एक बिजली छू गई, सहसा जगा मैं,
कृष्णपक्षी चाँद निकला था गगन में,
इस तरह करवट पड़ी थी तुम कि आँसू
बह रहे थे इस नयन से उस नयन में,
मैं लगा दूँ आग इस संसार में है
प्यार जिसमें इस तरह असमर्थ कातर,
जानती हो, उस समय क्या कर गुज़रने
के लिए था कर दिया तैयार तुमने!

रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।

प्रात ही की ओर को है रात चलती
औ’ उजाले में अंधेरा डूब जाता,
मंच ही पूरा बदलता कौन ऐसी,
खूबियों के साथ परदे को उठाता,
एक चेहरा-सा लगा तुमने लिया था,
और मैंने था उतारा एक चेहरा,
वो निशा का स्वप्न मेरा था कि अपने पर
ग़ज़ब का था किया अधिकार तुमने।

रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।

और उतने फ़ासले पर आज तक सौ
यत्न करके भी न आये फिर कभी हम,
फिर न आया वक्त वैसा, फिर न मौका
उस तरह का, फिर न लौटा चाँद निर्मम,


और अपनी वेदना मैं क्या बताऊँ,
क्या नहीं ये पंक्तियाँ खुद बोलती हैं
बुझ नहीं पाया अभी तक उस समय जो
रख दिया था हाथ पर अंगार तुमने।

रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।

-----------------हरिवंशराय बच्चन

वो कभी धूप कभी छाँव लगे

वो कभी धूप कभी छाँव लगे ।
मुझे क्या-क्या न मेरा गाँव लगे ।

किसी पीपल के तले जा बैठे
अब भी अपना जो कोई दाँव लगे ।

एक रोटी के त'अक्कुब में चला हूँ इतना
की मेरा पाँव किसी और ही का पाँव लगे ।

रोटि-रोज़ी की तलब जिसको कुचल देती है
उसकी ललकार भी एक सहमी हुई म्याँव लगे ।

जैसे देहात में लू लगती है चरवाहों को
बम्बई में यूँ ही तारों की हँसी छाँव लगे

------------------कैफ़ी आज़मी

Friday, February 24, 2012

सांझ की लाली

सांझ की लाली सुलग-सुलग कर बन गई काली धूल
आए न बालम बेदर्दी मैं चुनती रह गई फूल

रैन भई, बोझल अंखियन में चुभने लागे तारे
देस में मैं परदेसन हो गई जब से पिया सिधारे

पिछले पहर जब ओस पड़ी और ठन्डी पवन चली
हर करवट अंगारे बिछ गए सूनी सेज जली

दीप बुझे सन्नाटा टूटा बाजा भंवर का शंख
बैरन पवन उड़ा कर ले गई परवानों के पंख

--------------साहिर लुधियानवी

Friday, February 17, 2012

हिज्र के मौसम

ऐसे हिज्र के मौसम अब कब आते हैं
तेरे अलावा याद हमें सब आते हैं

जज़्ब करे क्यों रेत हमारे अश्कों को
तेरा दामन तर करने अब आते हैं

अब वो सफ़र की ताब नहीं बाक़ी वरना
हम को बुलावे दश्त से जब-तब आते हैं

जागती आँखों से भी देखो दुनिया को
ख़्वाबों का क्या है वो हर शब आते हैं

काग़ज़ की कश्ती में दरिया पार किया
देखो हम को क्या-क्या करतब आते हैं

---------------शहरयार

Monday, February 13, 2012

रक्स में रात है बदन की तरह

रक्स में रात है बदन की तरह
बारिशों की हवा में बन की तरह

चाँद भी मेरी करवटों का गवाह
मेरे बिस्तर की हर शिकन की तरह

चाक है दामन ए क़बा ए बहार
मेरे ख़्वाबों के पैरहन की तरह

जिंदगी तुझसे दूर रह कर मैं
काट लूंगी जलावतन की तरह

मुझको तस्लीम मेरे चाँद कि मैं
तेरे हमराह हूँ गगन की तरह

बारहा तेरा इंतज़ार किया
अपने ख़्वाबों में इक दुल्हन की तरह

-----------परवीन शाकिर

Wednesday, January 25, 2012

सारी बस्ती में ये जादू

सारी बस्ती में ये जादू नज़र आए मुझको
जो दरीचा भी खुले तू नज़र आए मुझको॥

सदियों का रस जगा मेरी रातों में आ गया
मैं एक हसीन शक्स की बातों में आ गया॥

जब तस्सवुर मेरा चुपके से तुझे छू आए
देर तक अपने बदन से तेरी खुशबू आए॥

गुस्ताख हवाओं की शिकायत न किया कर
उड़ जाए दुपट्टा तो खनक ओढ लिया कर॥

तुम पूछो और में न बताउ ऐसे तो हालात नहीं
एक ज़रा सा दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं॥

रात के सन्नाटे में हमने क्या-क्या धोके खाए है
अपना ही जब दिल धड़का तो हम समझे वो आए है॥

--------------------क़तील शिफ़ाई