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Saturday, April 28, 2012

उस बेवफ़ा का शहर है

उस बेवफ़ा का शहर है और हम हैं दोस्तों|
अश्क-ए-रवाँ की नहर है और हम हैं दोस्तों|

शाम-ए-आलम ढली तो चली दर्द की हवा,
रातों का पिछला पहर है और हम हैं दोस्तों|

आँखों में उड़ रही है लुटी महफ़िलों की धूल,
इब्रत बर-ए-दहर है और हम हैं दोस्तों|

ये अजनबी सी मंज़िलें और रफ़्तगा की याद,
तन्हाइयों का ज़हर है और हम हैं दोस्तों|

---------------------मुनीर नियाज़ी

Wednesday, April 18, 2012

किताबों में मेरे फ़साने ढूँढते हैं

किताबों में मेरे फ़साने ढूँढते हैं,
नादां हैं गुज़रे ज़माने ढूँढते हैं ।

जब वो थे तलाशे-ज़िंदगी भी थी,
अब तो मौत के ठिकाने ढूँढते हैं ।

कल ख़ुद ही अपनी महफ़िल से निकाला था,
आज हुए से दीवाने ढूँढते हैं ।

मुसाफ़िर बे-ख़बर हैं तेरी आँखों से,
तेरे शहर में मैख़ाने ढूँढते हैं ।

तुझे क्या पता ऐ सितम ढाने वाले,
हम तो रोने के बहाने ढूँढते हैं ।

उनकी आँखों को यूँ ना देखो ’फ़राज़’,
नए तीर हैं, निशाने ढूँढते हैं ।

---------------------अहमद फ़राज़

इज़्हार

पत्थर की तरह अगर मैं चुप रहूँ
तो ये न समझ कि मेरी हस्ती
बेग़ान-ए-शोल-ए-वफ़ा है
तहक़ीर से यूँ न देख मुझको
ऐ संगतराश! तेरा तेशा
मुम्किन है कि ज़र्बे-अव्वली से
पहचान सके कि मेरे दिल में
जो आग तेरे लिए दबी है
वो आग ही मेरी ज़िंदगी है

----------------अहमद फ़राज़

Tuesday, April 3, 2012

चांद तन्हा है आसमां तन्हा

चाँद तन्हा है आसमाँ तन्हा,
दिल मिला है कहाँ-कहाँ तन्हा

बुझ गई आस, छुप गया तारा,
थरथराता रहा धुआँ तन्हा

ज़िन्दगी क्या इसी को कहते हैं,
जिस्म तन्हा है और जाँ तन्हा

हमसफ़र कोई गर मिले भी कभी,
दोनों चलते रहें कहाँ तन्हा

जलती-बुझती-सी रोशनी के परे,
सिमटा-सिमटा-सा एक मकाँ तन्हा

राह देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जाएँगे ये जहाँ तन्हा।

----------------------मीनाकुमारी

मुहब्बत बहार के फूलों की तरह

मुहब्बत
बहार के फूलों की तरह मुझे अपने जिस्म के रोएं रोएं से
फूटती मालूम हो रही है
मुझे अपने आप पर एक
ऐसे बजरे का गुमान हो रहा है जिसके रेशमी बादबान
तने हुए हों और जिसे
पुरअसरार हवाओं के झोंके आहिस्ता आहिस्ता दूर दूर
पुर सुकून झीलों
रौशन पहाड़ों और
फूलों से ढके हुए गुमनाम ज़ंजीरों की तरफ लिये जा रहे हों
वह और मैं
जब ख़ामोश हो जाते हैं तो हमें
अपने अनकहे, अनसुने अल्फ़ाज़ में
जुगनुओं की मानिंद रह रहकर चमकते दिखाई देते हैं
हमारी गुफ़्तगू की ज़बान
वही है जो
दरख़्तों, फूलों, सितारों और आबशारों की है
यह घने जंगल
और तारीक रात की गुफ़्तगू है जो दिन निकलने पर
अपने पीछे
रौशनी और शबनम के आँसु छोड़ जाती है, महबूब
आह
मुहब्बत!

---------------------मीना कुमारी