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Friday, July 23, 2010

निगाह का वार था

निगाह का वार था दिल पर फड़कने जान लगी
चली थी बरछी किसी पर किसी के आन लगी

किसी के दिल का सुनो हाल दिल लगाकर तुम
जो होवे दिल को तुम्हारे भी मेहरबान लगी

तू वह हलाले जबीं है की तारे बन बनकर
रहे हैं तेरी तरफ चश्म इक जहान लगी

उदारी हिर्स ने आकर जहान में सबकी ख़ाक
नहीं है किसको हवा ज़ेरे-आसमान लगी

किसी की काविशे-मिज़गां से आज सारी रात
नहीं पलक से पलक मेरी एक आन लगी

तबाह बहरे-जहां में थी अपनी कश्ती-ए-उम्र
सो टूट-फूट के बारे किनारे आन लगी

-----------------------ज़ौक़

तेरा बीमार न सँभला जो सँभाला लेकर

तेरा बीमार न सँभला जो सँभाला लेकर
चुपके ही बैठे रहे दम को मसीहा लेकर

शर्ते-हिम्मत नहीं मुज़रिम हो गिरफ्तारे-अज़ाब
तूने क्या छोड़ा अगर छोड़ेगा बदला लेकर

मुझसा मुश्ताक़े-जमाल एक न पाओगे कहीं
गर्चे ढूँढ़ोगे चिराग़े-रुखे-ज़ेबा लेकर

तेरे क़दमों में ही रह जायेंगे, जायेंगे कहाँ
दश्त में मेरे क़दम आबलाए-पा लेकर

वाँ से याँ आये थे ऐ 'ज़ौक़' तो क्या लाये थे
याँ से तो जायेंगे हम लाख तमन्ना लेकर

------------------------ज़ौक़

जान के जी में सदा जीने का ही अरमाँ रहा

जान के जी में सदा जीने का ही अरमाँ रहा
दिल को भी देखा किये यह भी परेशाँ ही रहा

कब लिबासे-दुनयवी में छूपते हैं रौशन-ज़मीर
ख़ानाए-फ़ानूस में भी शोला उरियाँ ही रहा

आदमीयत और शै है, इल्म है कुछ और शै
कितना तोते को पढ़ाया पर वो हैवाँ ही रहा

मुद्दतों दिल और पैकाँ दोनों सीने में रहे
आख़िरश दिल बह गया ख़ूँ होके, पैकाँ ही रहा

दीनो-ईमाँ ढूँढ़ता है 'ज़ौक़' क्या इस वक़्त में
अब न कुछ दीं ही रहा बाक़ी न ईमाँ ही रहा

----------------ज़ौक़

Sunday, July 4, 2010

भीगा दिन

भीगा दिन
पश्चिमी तटों में उतर चुका है,
बादल-ढकी रात आती है
धूल-भरी दीपक की लौ पर
मंद पग धर।

गीली राहें धीरे-धीरे सूनी होतीं
जिन पर बोझल पहियों के लंबे निशान है
माथे पर की सोच-भरी रेखाओं जैसे।

पानी-रँगी दिवालों पर
सूने राही की छाया पड़ती
पैरों के धीमे स्वर मर जाते हैं
अनजानी उदास दूरी में।

सील-भरी फुहार-डूबी चलती पुरवाई
बिछुड़न की रातों को ठंडी-ठंडी करती
खोये-खोये लुटे हुए खाली कमरे में
गूँज रहीं पिछले रंगीन मिलन की यादें
नींद-भरे आलिंगन में चूड़ी की खिसलन
मीठे अधरों की वे धीमी-धीमी बातें।

ओले-सी ठंडी बरसात अकेली जाती
दूर-दूर तक
भीगी रात घनी होती हैं
पथ की म्लान लालटेनों पर
पानी की बूँदें
लंबी लकीर बन चू चलती हैं
जिन के बोझल उजियाले के आस-पास
सिमट-सिमट कर
सूनापन है गहरा पड़ता,

दूर देश का आँसू-धुला उदास वह मुखड़ा
याद-भरा मन खो जाता है
चलने की दूरी तक आती हुई
थकी आहट में मिल कर।

-------------------गिरिजाकुमार माथुर

Saturday, July 3, 2010

बारिश

खिड़की से अचानक बारिश आई
एक तेज़ बौछार ने मुझे बीच नींद से जगाया
दरवाज़े खटखटाए ख़ाली बर्तनों को बजाया
उसके फुर्तील्रे क़दम पूरे घर में फैल गए
वह काँपते हुए घर की नींव में धँसना चाहती थी
पुरानी तस्वीरों टूटे हुए छातों और बक्सों के भीतर
पहुँचना चाहती थी तहाए हुए कपड़ों को
बिखराना चाहती थी वह मेरे बचपन में बरसना
चाहती थी मुझे तरबतर करना चाहती थी
स्कूल जानेवाले रास्ते पर
बारिश में एक एक कर चेहरे भीगते थे
जो हमउम्र थे पता नहीं कहाँ तितरबितर हो गए थे
उनके नाम किसी और बारिश में पुँछ गए थे
भीगती हुई एक स्त्री आई जिसका चेहरा
बारिश की तरह था जिसके केशों में बारिश
छिपी होती थी जो फ़िर एक नदी बनकर
चली जाती थी इसी बारिश में एक दिन
मैं दूर तक भीगता हुआ गया इसी में कहीं लापता
हुआ भूल गया जो कुछ याद रखना था
इसी बारिश में कहीं रास्ता नहीं दिखाई दिया
इसी में बूढ़ा हुआ जीवन समाप्त होता हुआ दिखा
एक रात मैं घर लौटा जब बारिश थी पिता
इंतज़ार करते थे माँ व्याकुल थी बहनें दूर से एक साथ
दौड़ी चली आई थीं बारिश में हम सिमटकर
पास-पास बैठ गए हमने पुरानी तस्वीरें देखीं
जिन पर कालिख लगी थी शीशे टूटे थे बारिश
बार बार उन चेहरों को बहाकर ले जाती थी
बारिश में हमारी जर्जरता अलग तरह की थी
पिता की बीमारी और माँ की झुर्रियाँ भी अनोखी थीं
हमने पुराने कमरों में झाँककर देखा दीवारें
साफ़ कीं जहाँ छत टपकती थी उसके नीचे बर्तन
रखे हमने धीमे धीमे बात की बारिश
हमारे हँसने और रोने को दबा देती थी
इतने घने बादलों के नीचे हम बार बार
प्रसन्न्ता के किसी किनारे तक जाकर लौट आते थे
बारिश की बूँदें आकर लालटेन का काँच
चिटकाती थीं माँ बीच बीच में उठकर देखती थी
कहीं हम भीग तो नहीं रहे बारिश में ।

----------------मंगलेश डबराल

बारिश

बारिश के लिए रात नहीं थी
वह तो बस बरस रही थी
हमारे लिए रात और बारिश थी ।

---------------प्रयाग शुक्ल

तुम्हारी यादें

नहीं भूलती है
जेठ की पहली बारिश के बाद
अकुलायी धरती से उठने वाली
वह सोंधी-सोंधी-सी गंध
नदियों, पहाड़ों और जंगलों को पार करते हुए
जाने कैसे चली आती है मुझ तक
और खिच्चे दानों में भरते दूध की तरह
मेरी आत्मा में भरती चली जाती है

कोयले की गर्द
और चिमनियों के विषाक्त धुएँ से भरे वायुमंडल में
जाने कैसे जीवित बच आती है वह गंध

भले ही हाथों में
धनरोपती के कीचड़ की जगह
ग्रीस और मोबिल लगते हैं
आँखें अब भी देखती हैं
लहलहाती फसलों का सपना

नहीं भूल पाता हूँ तुम्हें

ऊँची चिमनियों और गहरी खदानों की
सँप-सीढ़ियों वाली इस औद्योगिक नगरी में
हमें हलाल करने के लिए
माफिया और दलाल ही नहीं
क्रांति की बातों से बातों की क्रांति करने वाले
श्रमिक-नेताओं के भ्रमजाल भी हैं
और इनके बीच
मछेरे की हाँड़ी में कैद मछली-सा छटपटाता
गंवई-गांव का मेरा मन
बिछड़े तालाब की तरह लगातार तुम्हें याद करता रहता है

कभी भी तो नहीं भूल पाता हूँ तुम्हें
मक्के ही हरी बाल के खिच्चे दानों जैसी
तुम्हारी धवल दंतपंक्तियों से
झड़ने वाली उजली-उजली हँसी
अभी भी मेरी नींद में थिरकती है
आषाढ़ की बारिश में उपजे मोथे की जड़ों-सी मीठी
तुम्हारी यादें
गठिबंध सरीखी मेरी आत्मा से लिपटी हैं!

---------------------मदन कश्यप