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Tuesday, August 28, 2012

मौसम को इशारों से बुला क्यूँ नहीं लेते

मौसम को इशारों से बुला क्यूँ नहीं लेते
रूठा है अगर वो तो मना क्यूँ नहीं लेते

दीवाना तुम्हारा कोई ग़ैर नहीं
मचला भी तो सीने से लगा क्यूँ नहीं लेते

ख़त लिख कर कभी और कभी ख़त को जलाकर
तन्हाई को रंगीन बना क्यूँ नहीं लेते

तुम जाग रहे हो मुझको अच्छा नहीं लगता
चुपके से मेरी नींद चुरा क्यूँ नहीं लेते

----------------------------- ज़फ़र गोरखपुरी

और काँटों को लहू किसने पिलाया होगा

और काँटों को लहू किसने पिलाया होगा
हम-सा दीवाना चमन में कोई आया होगा

बेसबब कोई उलझता है भला कब किससे
तुमने गुज़रा हुआ कल याद दिलाया होगा

जुज़ हमारे ऐ सुलगती हुई तन्हाई तुझे
ऐसे सीने से भला किसने लगाया होगा

कोई आया है न ‘शहज़ाद’ कोई आएगा
वहम ने याद के पर्दों को हिलाया होगा

---------------------------फ़रहत शहज़ाद

मसीहा उंगलियां तेरी

मुझे इक बोझ की सूरत
उठाकर शाम कांधे पर

जब अपने घर पटक देती है लाकर
तेरे होठों की ज़िंदा मुस्कराहट

उठाती है मुझे
कहती है आओ

तुम्हारा बोझ पलकों पर उठा लूँ
सब अच्छा है

सभी ने घर में खाना खा लिया है
बघारी दाल, सोंधी रोटियाँ, आलू की सब्ज़ी, गर्म चाय

और उससे भी बहुत मीठा तेरा अंदाज़े दिलदारी
तेरी मानूस ग़मख़ारी

हथेली तेल बनकर जज्ब़ हो जाती है मेरे गर्म सर में
समा जाती हैं बालों में मसीहा उंगलियां तेरी

मुझे महसूस होता है
मेरे बिखरे हुए आज़ा दुबारा जुड़ गए हैं....

----------------------------- ज़फ़र गोरखपुरी

प्यार करने की यह इस दिल को सज़ा दी जाए

प्यार करने की यह इस दिल को सज़ा दी जाए
उसकी तस्वीर सरे-आम लगा दी जाए

ख़त में इस बार उसे भेजिये सूखा पत्ता
और उस पत्ते पे इक आँख बना दी जाए

इतनी पी जाए कि मिट जाए मन-ओ-तकी तमीज़
यानि ये होश की दीवार गिरा दी जाए

आज हर शय का असर लगता है उल्टा यारो
आज `शहज़ाद' को जीने की दुआ दी जाए

---------------------------फ़रहत शहज़ाद

मिले किसी से नज़र तो समझो ग़ज़ल हुई ‎

 मिले किसी से नज़र तो समझो ग़ज़ल हुई
रहे अपनी ख़बर तो समझो ग़ज़ल हुई

मिला के नज़रों को वो हया से फिर,
झुका ले कोई नज़र तो समझो ग़ज़ल हुई

इधर मचल कर उन्हें पुकारे जुनूँ मेरा,
भड़क उठे दिल उधर तो समझो ग़ज़ल हुई

उदास बिस्तर की सिलवटे जब तुम्हें चुभें,
न सो सको रात भर तो समझो ग़ज़ल हुई

वो बदगुमाँ हो तो शेर सूझे न शायरी,
वो महरबाँ हो ज़फ़र तो समझो ग़ज़ल हुई
----------------------------- ज़फ़र गोरखपुरी

कोंपले फिर फूट आईं शाख़ पर कहना उसे

कोंपले फिर फूट आँई शाख पर कहना उसे
वो न समझा है न समझेगा मगर कहना उसे

वक़्त का तूफ़ान हर इक शय बहा के ले गया
कितनी तनहा हो गयी है रहगुज़र कहना उसे

जा रहा है छोड़ कर तनहा मुझे जिसके लिए
चैन न दे पायेगा वो सीमज़र कहना उसे

रिस रहा हो खून दिल से लब मगर हँसते रहे
कर गया बर्बाद मुझको ये हुनर कहना उसे

जिसने ज़ख्मों से मेरा 'शहज़ाद' सीना भर दिया
मुस्कुरा कर आज क्या है चारागर कहना उसे

---------------------------फ़रहत शहज़ाद

‎जिस्म छूती है जब आ आ के पवन बारिश में

‎जिस्म छूती है जब आ आ के पवन बारिश में
और बढ़ जाती है कुछ दिल की जलन बारिश में

मेरे अतराफ़ छ्लक पड़ती हैं मीठी झीलें
जब नहाता है कोई सीमबदन बारिश में

दूध में जैसे कोई अब्र का टुकड़ा घुल जाए
ऐसा लगता है तेरा सांवलापन बारिश में

नद्दियाँ सारी लबालब थीं मगर पहरा था
रह गए प्यासे मुरादों के हिरन बारिश में

अब तो रोके न रुके आंख का सैलाब सखी
जी को आशा थी कि आएंगे सजन बारिश में

बाढ़ आई थी ज़फ़र ले गई घरबार मेरा
अब किसे देखने जाऊं मैं वतन, बारिश में

----------------------------- ज़फ़र गोरखपुरी

जब घटा कोई टूट कर बरसे

जब घटा कोई टूटकर बरसे
दिल मेरा तेरे लम्स को तरसे

फिर तेरा नाम शाम तन्हाई
सहमी-सहमी हैं धड़कनें डर से

हाल अन्दर का बस ख़ुदा जाने
कितना रौशन है दीप बाहर से

जाने शहज़ाद बिन तेरे जीना
बूँद जैसे जुदा समन्दर से

---------------------------फ़रहत शहज़ाद

दिल-ऐ-पुर खूँ की इक गुलाबी से

दिल-ऐ-पुर खूँ की इक गुलाबी से
उम्र भर हम रहे शराबी से

दिल दहल जाए है सहर से आह
रात गुज़रेगी किस खराबी से

खिलना कम कम कली ने सीखा है
उस की आंखों की नीम-ख्वाबी से

काम थे इश्क में बहुत से 'मीर'
हम ही फ़ारिग हुए शिताबी से

--------------------------- मीर तक़ी 'मीर'

खुली जो आँख तो वो था न वो ज़माना था

ख़ुली जो आँख तो वो था न वो ज़माना था
दहकती आग थी तन्हाई थी फ़साना था

ग़मों ने बाँट लिया है मुझे यूँ आपस में
के जैसे मैं कोई लूटा हुआ ख़ज़ाना था

ये क्या के चंद ही क़दमों पे थक के बैठ गये
तुम्हें तो साथ मेरा दूर तक निभाना था

मुझे जो मेरे लहू में डुबो के गुज़रा है
वो कोई ग़ैर नहीं यार एक पुराना था

भरम ख़ुलूस-ओ-मोहब्बत का जाँ रह जाता
ज़रा सी देर मेरा प्यार तो आज़माना था

ख़ुद अपने हाथ से "शहज़ाद" उस को काट दिया
के जिस दरख़्त के टहनी पे आशियाना था

---------------------------फ़रहत शहज़ाद

मेरे बाद किधर जाएगी तन्हाई

मेरे बाद किधर जाएगी तन्हाई
मैं जो मरा तो मर जाएगी तन्हाई

मैं जब रो रो के दरिया बन जाऊँगा
उस दिन पार उतर जाएगी तन्हाई

तन्हाई को घर से रुख़्सत कर तो दो
सोचो किस के घर जाएगी तन्हाई

वीराना हूँ आबादी से आया हूँ
देखेगी तो डर जाएगी तन्हाई

यूँ आओ कि पावों की भी आवाज़ न हो
शोर हुआ तो मर जाएगी तन्हाई

----------------------------- ज़फ़र गोरखपुरी

Sunday, August 19, 2012

सुबह के दर्द को रातों की जलन को भूलें

सुबह के दर्द को रातों की जलन को भूलें
किसके घर जायेँ कि उस वादा-शिकन को भूलें

आज तक चोट दबाये नहीं दबती दिल की
किस तरह उस सनम-ए-संगबदन को भूलें

अब सिवा इसके मदावा-ए-ग़म-ए-दिल क्या है
इतनी पी जायेँ कि हर रंज-ओ-मेहन को भूलें

और तहज़ीब-ए-गम-ए-इश्क़ निबाह दे कुछ दिन
आख़िरी वक़्त में क्या अपने चलन को भूलें

-------------------------जाँ निसार अख़्तर

मैं तनहा हूँ , नहीं भी हूँ

मैं तनहा हूँ , नहीं भी हूँ
के मेरा ज़हन खाली एक पल को भी नहीं रहता
न जाने किन खयालों के सफरनामे
हमेशा सामने रहते हैं जिनको पढता रहता हूँ.
समंदर के मनाज़िर,
शोरिशें,
मौजों की बर्क-आमेज़ तक़रीरें,
रुपहले, रूई जैसे नर्म
मजनूं बादलों के रक्स की थिरकन,
फजाओं से उभरती ताएरों की जानी-पहचानी,
मगर, बेलौस आवाजें
मैं सुनता हूँ
मुझे महसूस होता है
के मैं खामोश-लब, बे-ख्वाब आँखें, मुन्जमिद चेहरा
हथेली पर लिए
बज्मे-तरब में बेहिसो-बेजान बैठा हूँ.
अचानक सारी आवाजें बदल जाती हैं शोलों में
हरारत दौड़कर माहौल के शाने हिलाती है
मुझे भी छू के आहिस्ता से कुछ कहती है कानों में
मेरी बे-ख्वाब आंखों में उतर आतें हैं फिर से ख्वाब
होंठों पर हरारत के लबों का लम्स पाकर
मुनजमिद चेहरे में एक तहरीक सी होती है
ख़ुद को ज़िंदगी के खुश्नावा आहंग से लबरेज़ पाता हूँ
मैं तनहा हूँ, नहीं भी हूँ. 

 ----------------------------------ज़ैदी जाफ़र रज़ा

Friday, August 10, 2012

तेरी आवाज़

रात सुनसान थी, बोझल थी फज़ा की साँसें
रूह पे छाये थे बेनाम ग़मों के साए
दिल को ये ज़िद थी कि तू आए तसल्ली देने
मेरी कोशिश थी कि कमबख्त को नींद आ जाए

देर तक आंखों में चुभती रही तारों कि चमक
देर तक ज़हन सुलगता रहा तन्हाई में
अपने ठुकराए हुए दोस्त की पुरसिश के लिए
तू न आई मगर इस रात की पहनाई में

यूँ अचानक तेरी आवाज़ कहीं से आई
जैसे परबत का जिगर चीर के झरना फूटे
या ज़मीनों कि मुहब्बत में तड़प कर नागाह
आसमानों से कोई शोख़ सितारा टूटे

शहद सा घुल गया तल्खा़बः-ए-तन्हाई में
रंग सा फैल गया दिल के सियहखा़ने में
देर तक यूँ तेरी मस्ताना सदायें गूंजीं
जिस तरह फूल चटखने लगें वीराने में

तू बहुत दूर किसी अंजुमन-ए-नाज़ में थी
फिर भी महसूस किया मैं ने कि तू आई है
और नग्मों में छुपा कर मेरे खोये हुए ख्वाब
मेरी रूठी हुई नींदों को मना लाई है

रात की सतह पे उभरे तेरे चेहरे के नुकूश
वही चुपचाप सी आँखें वही सादा सी नज़र
वही ढलका हुआ आँचल वही रफ़्तार का ख़म
वही रह रह के लचकता हुआ नाज़ुक पैकर

तू मेरे पास न थी फिर भी सहर होने तक
तेरा हर साँस मेरे जिस्म को छू कर गुज़रा
क़तरा क़तरा तेरे दीदार की शबनम टपकी
लम्हा लम्हा तेरी ख़ुशबू से मुअत्तर गुज़रा

अब यही है तुझे मंज़ूर तो ऐ जान-ए-बहार
मैं तेरी राह न देखूँगा सियाह रातों में
ढूंढ लेंगी मेरी तरसी हुई नज़रें तुझ को
नग़्मा-ओ-शेर की उभरी हुई बरसातों में

अब तेरा प्यार सताएगा तो मेरी हस्ती
तेरी मस्ती भरी आवाज़ में ढल जायेगी
और ये रूह जो तेरे लिए बेचैन सी है
गीत बन कर तेरे होठों पे मचल जायेगी

तेरे नग्मात तेरे हुस्न की ठंडक लेकर
मेरे तपते हुए माहौल में आ जायेंगे
चाँद घड़ियों के लिए हो कि हमेशा के लिए
मेरी जागी हुई रातों को सुला जायेंगे

-------------------------------साहिर लुधियानवी

Thursday, August 9, 2012

अव्वल अव्वल की दोस्ती

अव्वल अव्वल की दोस्ती है अभी
इक ग़ज़ल है कि हो रही है अभी

मैं भी शहरे-वफ़ा में नौवारिद
वो भी रुक रुक के चल रही है अभी

मैं भी ऐसा कहाँ का ज़ूद शनास
वो भी लगता है सोचती है अभी

दिल की वारफ़तगी है अपनी जगह
फिर भी कुछ एहतियात सी है अभी

गरचे पहला सा इज्तिनाब नहीं
फिर भी कम कम सुपुर्दगी है अभी

कैसा मौसम है कुछ नहीं खुलता
बूंदा-बांदी भी धूप भी है अभी

ख़ुद-कलामी में कब ये नशा था
जिस तरह रु-ब-रू कोई है अभी

क़ुरबतें लाख खूबसूरत हों
दूरियों में भी दिलकशी है अभी

फ़सले-गुल में बहार पहला गुलाब
किस की ज़ुल्फ़ों में टांकती है अभी

सुबह नारंज के शिगूफ़ों की
किसको सौगात भेजती है अभी

रात किस माह -वश की चाहत में
शब्नमिस्तान सजा रही है अभी

मैं भी किस वादी-ए-ख़याल में था
बर्फ़ सी दिल पे गिर रही है अभी

मैं तो समझा था भर चुके सब ज़ख़्म
दाग़ शायद कोई कोई है अभी

दूर देशों से काले कोसों से
कोई आवाज़ आ रही है अभी

ज़िन्दगी कु-ए-ना-मुरादी से
किसको मुड़ मुड़ के देखती है अभी

इस क़दर खीच गयी है जान की कमान
ऐसा लगता है टूटती है अभी

ऐसा लगता है ख़ल्वत-ए-जान में
वो जो इक शख़्स था वोही है अभी

मुद्दतें हो गईं 'फ़राज़' मगर
वो जो दीवानगी थी, वही है अभी

------------------------अहमद फ़राज़