फिर छिड़ी रात बात फूलों की
रात है या बारात फूलों की ।
फूल के हार, फूल के गजरे
शाम फूलों की रात फूलों की ।
आपका साथ, साथ फूलों का
आपकी बात, बात फूलों की ।
नज़रें मिलती हैं जाम मिलते हैं
मिल रही है हयात फूलों की ।
कौन देता है जान फूलों पर
कौन करता है बात फूलों की ।
वो शराफ़त तो दिल के साथ गई
लुट गई कायनात फूलों की ।
अब किसे है दमाग़े तोहमते इश्क़
कौन सुनता है बात फूलों की ।
मेरे दिल में सरूर-ए-सुबह बहार
तेरी आँखों में रात फूलों की ।
फूल खिलते रहेंगे दुनिया में
रोज़ निकलेगी बात फूलों की ।
ये महकती हुई ग़ज़ल 'मख़दूम'
जैसे सहरा में रात फूलों की
-----------मख़दूम मोहिउद्दीन
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Wednesday, October 26, 2011
चारागर
इक चम्बेली के मंडवे तले
मयकदे से ज़रा दूर उस मोड़ पर
दो बदन
प्यार की आग में जल गए
प्यार हर्फ़े वफ़ा
प्यार उनका ख़ुदा
प्यार उनकी चिता
दो बदन
ओस में भीगते, चाँदनी में नहाते हुए
जैसे दो ताज़ा रू ताज़ा दम फूल पिछले पहर
ठंडी-ठंडी सबक रौ चमन की हवा
सर्फ़े मातम हुई
काली-काली लटों से लिपट गर्म रुख़सार पर
एक पल के लिए रुक गई
हमने देखा उन्हें
दिन में और रात में
नूरो जुल्मात में
मस्जिदों के मीनारों ने देखा उन्हें
मन्दिरों के किवाड़ों ने देखा उन्हें
मयकदे की दरारों ने देखा उन्हें
अज़ अज़ल ता अबद
ये बता चारागर
तेरी जन्बील में
नुस्ख़-ए-कीमियाए मुहब्बत भी है
कुछ इलाज व मदावा-ए-उल्फ़त भी है ?
इक चम्बेली के मड़वे तले
मयकदे से ज़रा दूर उस मोड़ पर
दो बदन ।
-----------मख़दूम मोहिउद्दीन
मयकदे से ज़रा दूर उस मोड़ पर
दो बदन
प्यार की आग में जल गए
प्यार हर्फ़े वफ़ा
प्यार उनका ख़ुदा
प्यार उनकी चिता
दो बदन
ओस में भीगते, चाँदनी में नहाते हुए
जैसे दो ताज़ा रू ताज़ा दम फूल पिछले पहर
ठंडी-ठंडी सबक रौ चमन की हवा
सर्फ़े मातम हुई
काली-काली लटों से लिपट गर्म रुख़सार पर
एक पल के लिए रुक गई
हमने देखा उन्हें
दिन में और रात में
नूरो जुल्मात में
मस्जिदों के मीनारों ने देखा उन्हें
मन्दिरों के किवाड़ों ने देखा उन्हें
मयकदे की दरारों ने देखा उन्हें
अज़ अज़ल ता अबद
ये बता चारागर
तेरी जन्बील में
नुस्ख़-ए-कीमियाए मुहब्बत भी है
कुछ इलाज व मदावा-ए-उल्फ़त भी है ?
इक चम्बेली के मड़वे तले
मयकदे से ज़रा दूर उस मोड़ पर
दो बदन ।
-----------मख़दूम मोहिउद्दीन
तुम मृगनयनी
तुम मृगनयनी, तुम पिकबयनी
तुम छवि की परिणीता-सी,
अपनी बेसुध मादकता में
भूली-सी, भयभीता सी ।
तुम उल्लास भरी आई हो
तुम आईं उच्छ्वास भरी,
तुम क्या जानो मेरे उर में
कितने युग की प्यास भरी ।
शत-शत मधु के शत-शत सपनों
की पुलकित परछाईं-सी,
मलय-विचुम्बित तुम ऊषा की
अनुरंजित अरुणाई-सी ;
तुम अभिमान-भरी आई हो
अपना नव-अनुराग लिए,
तुम क्या जानो कि मैं तप रहा
किस आशा की आग लिए ।
भरे हुए सूनेपन के तम
में विद्युत की रेखा-सी;
असफलता के पट पर अंकित
तुम आशा की लेखा-सी ;
आज हृदय में खिंच आई हो
तुम असीम उन्माद लिए,
जब कि मिट रहा था मैं तिल-तिल
सीमा का अपवाद लिए ।
चकित और अलसित आँखों में
तुम सुख का संसार लिए,
मंथर गति में तुम जीवन का
गर्व भरा अधिकार लिए ।
डोल रही हो आज हाट में
बोल प्यार के बोल यहाँ,
मैं दीवाना निज प्राणों से
करने आया मोल यहाँ ।
अरुण कपोलों पर लज्जा की
भीनी-सी मुस्कान लिए,
सुरभित श्वासों में यौवन के
अलसाए-से गान लिए ,
बरस पड़ी हो मेरे मरू में
तुम सहसा रसधार बनी,
तुममें लय होकर अभिलाषा
एक बार साकार बनी ।
तुम हँसती-हँसती आई हो
हँसने और हँसाने को,
मैं बैठा हूँ पाने को फिर
पा करके लुट जाने को ।
तुम क्रीड़ा की उत्सुकता-सी,
तुम रति की तन्मयता-सी;
मेरे जीवन में तुम आओ,
तुम जीवन की ममता-सी।
------------भगवतीचरण वर्मा
तुम छवि की परिणीता-सी,
अपनी बेसुध मादकता में
भूली-सी, भयभीता सी ।
तुम उल्लास भरी आई हो
तुम आईं उच्छ्वास भरी,
तुम क्या जानो मेरे उर में
कितने युग की प्यास भरी ।
शत-शत मधु के शत-शत सपनों
की पुलकित परछाईं-सी,
मलय-विचुम्बित तुम ऊषा की
अनुरंजित अरुणाई-सी ;
तुम अभिमान-भरी आई हो
अपना नव-अनुराग लिए,
तुम क्या जानो कि मैं तप रहा
किस आशा की आग लिए ।
भरे हुए सूनेपन के तम
में विद्युत की रेखा-सी;
असफलता के पट पर अंकित
तुम आशा की लेखा-सी ;
आज हृदय में खिंच आई हो
तुम असीम उन्माद लिए,
जब कि मिट रहा था मैं तिल-तिल
सीमा का अपवाद लिए ।
चकित और अलसित आँखों में
तुम सुख का संसार लिए,
मंथर गति में तुम जीवन का
गर्व भरा अधिकार लिए ।
डोल रही हो आज हाट में
बोल प्यार के बोल यहाँ,
मैं दीवाना निज प्राणों से
करने आया मोल यहाँ ।
अरुण कपोलों पर लज्जा की
भीनी-सी मुस्कान लिए,
सुरभित श्वासों में यौवन के
अलसाए-से गान लिए ,
बरस पड़ी हो मेरे मरू में
तुम सहसा रसधार बनी,
तुममें लय होकर अभिलाषा
एक बार साकार बनी ।
तुम हँसती-हँसती आई हो
हँसने और हँसाने को,
मैं बैठा हूँ पाने को फिर
पा करके लुट जाने को ।
तुम क्रीड़ा की उत्सुकता-सी,
तुम रति की तन्मयता-सी;
मेरे जीवन में तुम आओ,
तुम जीवन की ममता-सी।
------------भगवतीचरण वर्मा
इंतज़ार
चाँद मद्धम है आसमां चुप है
नींद की गोद में जहाँ चुप है
दूर वादी में दूधिया बादल
झुक के पर्बत को प्यार करते हैं
दिल में नाकाम हसरतें लेकर
हम तेरा इंतज़ार करते हैं
इन बहारों के साये में आजा
फिर मुहब्बत जवाँ रहे न रहे
ज़िंदगी तेरे नामुरादों पर
कल तलक मेहरबां रहे न रहे
रोज की तरह आज भी तारे
सुबह की गर्द में ना खो जाएँ
आ तेरे ग़म में जागती आँखे
कम से कम एक रात सो जाएँ
चाँद मद्धम है आसमां चुप है
नींद की गोद में जहाँ चुप है
----------साहिर लुधियानवी
नींद की गोद में जहाँ चुप है
दूर वादी में दूधिया बादल
झुक के पर्बत को प्यार करते हैं
दिल में नाकाम हसरतें लेकर
हम तेरा इंतज़ार करते हैं
इन बहारों के साये में आजा
फिर मुहब्बत जवाँ रहे न रहे
ज़िंदगी तेरे नामुरादों पर
कल तलक मेहरबां रहे न रहे
रोज की तरह आज भी तारे
सुबह की गर्द में ना खो जाएँ
आ तेरे ग़म में जागती आँखे
कम से कम एक रात सो जाएँ
चाँद मद्धम है आसमां चुप है
नींद की गोद में जहाँ चुप है
----------साहिर लुधियानवी
क्या कहिये किस तरह
क्या कहिये किस तरह से जवानी गुज़र गई
बदनाम करने आई थी बदनाम कर गई ।
क्या क्या रही सहर को शब-ए-वस्ल की तलाश
कहता रहा अभी तो यहीं थी किधर गई ।
रहती है कब बहार-ए-जवानी तमाम उम्र
मानिन्दे-बू-ए-गुल इधर आयी उधर गई ।
नैरंग-ए-रोज़गार से बदला न रंग-ए-इश्क़
अपनी हमेशा एक तरह पर गुज़र गई ।
-------दाग़ देहलवी
बदनाम करने आई थी बदनाम कर गई ।
क्या क्या रही सहर को शब-ए-वस्ल की तलाश
कहता रहा अभी तो यहीं थी किधर गई ।
रहती है कब बहार-ए-जवानी तमाम उम्र
मानिन्दे-बू-ए-गुल इधर आयी उधर गई ।
नैरंग-ए-रोज़गार से बदला न रंग-ए-इश्क़
अपनी हमेशा एक तरह पर गुज़र गई ।
-------दाग़ देहलवी
काबे की है हवस कभी कू-ए-बुतां की है
काबे की है हवस कभी कू-ए-बुतां की है
मुझ को ख़बर नहीं मेरी मिट्टी कहाँ की है
कुछ ताज़गी हो लज्जत-ए-आज़ार के लिए
हर दम मुझे तलाश नए आसमां की है
हसरत बरस रही है मेरे मज़ार से
कहते है सब ये कब्र किसी नौजवां की है
क़ासिद की गुफ्तगू से तस्ल्ली हो किस तरह
छिपती नहीं वो जो तेरी ज़बां की है
सुन कर मेरा फ़साना-ए-ग़म उस ने ये कहा
हो जाए झूठ सच, यही ख़ूबी बयां की है
क्यूं कर न आए ख़ुल्द से आदम ज़मीन पर
मौजूं वहीं वो ख़ूब है, जो शय जहाँ की है
उर्दू है जिसका नाम हमीं जानते हैं 'दाग़'
हिन्दुस्तां में धूम हमारी ज़बां की है
-------------दाग़ देहलवी
मुझ को ख़बर नहीं मेरी मिट्टी कहाँ की है
कुछ ताज़गी हो लज्जत-ए-आज़ार के लिए
हर दम मुझे तलाश नए आसमां की है
हसरत बरस रही है मेरे मज़ार से
कहते है सब ये कब्र किसी नौजवां की है
क़ासिद की गुफ्तगू से तस्ल्ली हो किस तरह
छिपती नहीं वो जो तेरी ज़बां की है
सुन कर मेरा फ़साना-ए-ग़म उस ने ये कहा
हो जाए झूठ सच, यही ख़ूबी बयां की है
क्यूं कर न आए ख़ुल्द से आदम ज़मीन पर
मौजूं वहीं वो ख़ूब है, जो शय जहाँ की है
उर्दू है जिसका नाम हमीं जानते हैं 'दाग़'
हिन्दुस्तां में धूम हमारी ज़बां की है
-------------दाग़ देहलवी
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