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Tuesday, September 7, 2010

मार-गज़ीद

मासूमियत और हमाक़त में पल भर का फ़ासला है
मेरी बस्ती में पिछली बरसात के बाद
इक ऐसी अ’साब्शिकन ख़ुशबू फ़ैली है
जिसके असर से
मेरे क़बीले के सारे ज़ीरक अफ़राद
अपनी-अपनी आँखों की झिल्ली मटियाली कर बैठे हैं
सादालौह तो पहले ही
सरकंडों और चमेली के झाड़ों के पास
बेसुध पाए जाते थे
दहन के अन्दर घुलते ही
नीम के पत्तों का यूँ बर्ग-ए-गुलाब हो जाना तो मज़बूरी थी
हैरत तो इस बात पे है के आक के पौधों की माजूदगी के बावस्फ़
वारिस-ए-तसनीम-ओ कौसर
ऐसी लुआब-आलूद मिठास को आब-ए-हयात समझ बैठे हैं।
मासूमियत और हमाक़त में पल-भर का फ़ासला है !

-------------------परवीन शाकिर

हनीमून

सुर्ख़ अंगूर से छनी हुई ये सर्द हवा
जिसको क़तरा-क़तरा पी कर
मेरे तन की प्यासी शाख़ के सारे पीले फूल गुलाबी होने लगे हैं
सोच के पत्थर पे ऐसी हरियाली उग आई है
जैसे इनका और बारिश का बड़ा पुराना साथ रहा हो
हरियाली के सब्ज़ नशे में डूबी ख़ुश्बू
मेरी आँखें चूम रही है
ख़ुश्बू के बोसों से बोझल मेरी पलकें
ऐसे बंद हुई जाती हैं
जैसे सारी दुनिया इक गहरा नीला सय्याल है
जो पाताल से मुझको अपनी जानिब खींच रहा है
और मैं तन के पूरे सुख से
इस पाताल की पहनाई में
धीरे-धीरे डूब रही हूँ

----------------परवीन शाकिर