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Wednesday, June 1, 2011

नुक्तः चीं है ग़म-ए-दिल उस को सुनाये न बने

नुक्तः चीं है ग़म-ए-दिल उस को सुनाये न बने
क्या बने बात जहाँ बात बनाए न बने

मैं बुलाता तो हूँ उस को, मगर ऐ जज़्बा-ए-दिल
उस पे बन जाए कुछ ऎसी कि बिन आये न बने

खेल समझा है, कहीं छोड़ न दे, भूल न जाए
काश यों भी हो, कि बिन मेरे सताए न बने

ग़ैर फिरता है लिए यों तेरे ख़त को कि अगर
कोई पूछे कि ये क्या है, तो छुपाये न बने

इस नज़ाकत का बुरा हो, वो भले हैं, तो क्या
हाथ आयें, तो उन्हें हाथ लगाए न बने

कह सके कौन, कि ये जल्वःगरी किस की है
पर्दः छोड़ा है वो उस ने, कि उठाये न बने

मौत की राह न देखूँ, कि बिन आये न रहे
तुम को चाहूँ कि न आओ, तो बुलाये न बने

बोझ वो सर से गिरा है, कि उठाये न बने
काम वो आन पड़ा है, कि बनाए न बने

इश्क़ पर ज़ोर नहीं, है ये वो आतिश "ग़ालिब"
कि लगाए न लगे, और बुझाए न बने

--------------------मिर्ज़ा ग़ालिब