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Saturday, September 17, 2011

कहीं चांद राहों में खो गया

कहीं चांद राहों में खो गया कहीं चांदनी भी भटक गई
मैं चराग़ वो भी बुझा हुआ मेरी रात कैसे चमक गई

मेरी दास्ताँ का उरूज था तेरी नर्म पलकों की छाँव में
मेरे साथ था तुझे जागना तेरी आँख कैसे झपक गई

कभी हम मिले तो भी क्या मिले वही दूरियाँ वही फ़ासले
न कभी हमारे क़दम बढ़े न कभी तुम्हारी झिझक गई

मुझे पढ़ने वाला पढ़े भी क्या मुझे लिखने वाला लिखे भी क्या
जहाँ नाम मेरा लिखा गया वहां रोशनाई उलट गई

तुझे भूल जाने की कोशिशें कभी क़ामयाब न हो सकीं
तेरी याद शाख़-ए-गुलाब है जो हवा चली तो लचक गई

----------बशीर बद्र